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सितंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

महाकाव्य और खण्ड काव्य में अंतर

काव्य के तीन मुख्य भेद प्रचलित हैं : महाकाव्य, खण्ड-काव्य और मुक्तक काव्य । महाकाव्य और खण्ड काव्य में कथा का होना अनिवार्य है; इसलिए इन दोनों को प्रबंध काव्य कहा जाता है । प्रबंध काव्य के दोनों रुपों में घटना और चरित्र का महत्व होता है । घटनाओं और चरित्रों के संबंध में भावों की योजना प्रबंध काव्य में अनिवार्य है । महाकाव्य में मुख्य चरित्र के जीवन को समग्रता में धारण करने के कारण विविधता और विस्तार होता है । खण्ड काव्य में मुख्य चरित्र की किसी एक प्रमुख विशेषता का चित्रण होने के कारण अधिक विविधता और विस्तार नहीं होता । मुक्तक काव्य में कथा-सूत्र आवश्यक नहीं है । इसलिए उसमें घटना और चरित्र के अनिवार्य प्रसंग में भाव-योजना नहीं होती । वह किसी भाव-विशेष को आधार बना कर की गई स्वतंत्र रचना है । काव्य-शास्त्र में महाकाव्य और खण्ड-काव्य के लक्षण गिना दिए गए हैं । जो निम्नानुसार हैं : महाकाव्य सर्गों में बँधा होता है । सर्ग आठ से अधिक होते हैं । वे न बहुत छोटे न बहुत बड़े होते हैं । हर सर्ग में एक ही छंद होता है । किंतु सर्ग का अंतिम पद्य भिन्न छंद का होता है । सर्ग के अंत में अगली

हिंदी के खण्ड काव्य

पिछली पोस्ट में हमने हिंदी के महाकाव्यों को सूचीबद्ध किया था । आज की इस पोस्ट में हम हिंदी साहित्य के आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक हिंदी में रचित खण्ड-काव्यों को सूचीबद्ध करेंगे । आदिकाल में रचित खण्ड-काव्य : अब्दुर्रहमान कृत संदेशरासक नरपतिनाल्ह कृत बीसलदेव रासो जिनधर्मसुरि कृत थूलिभद्दफाग भक्तिकाल में रचित खण्ड काव्य : नरोत्तमदास कृत सुदामाचरित नंददास कृत भंवरगीत, रुक्मिणी मंगल तुलसीदास कृत पार्वती मंगल, जानकी मंगल रीतिकाल में रचित खण्ड-काव्य : पद्माकर विरचित हिम्मत बहादुर बिरदावली आधुनिक काल के खण्ड काव्य : भारतेंदु युग में रचित खण्ड-काव्य : श्रीधर पाठक का एकांतवासी योगी जगन्नाथ दास रत्नाकर का हरिश्चंद्र द्विवेदी युग में रचित खण्ड-काव्य : मैथिलीशरण गुप्त : रंग में भंग, जयद्रथ वध, नलदमयंती, शकुंतला, किसान, अनाथ सियारामशरण गुप्त : मौर्य विजय रामनरेश त्रिपाठी : मिलन, पथिक द्वारिका प्रसाद गुप्त : आत्मार्पण छायावाद युग में रचित खण्ड -काव्य : सुमित्रानंदन पंत : ग्रंथि रामनरेश त्रिपाठी : स्वप्न मैथिलीशरण गुप्त :पंचवटी, अनध,वनवैभव, वक-संहार अनूप शर्मा

हिंदी के महाकाव्य

सभी जानते हैं कि बाल्मीकि कृत रामायण और वेदव्यास कृत महाभारत संस्कृत के लौकिक महाकाव्य हैं । हिंदी में भी कुछ काव्यों को महाकाव्य की श्रेणी में रखा गया है; हिंदी के इन्हीं महाकाव्यों की सूची नीचे प्रस्तुत है : - चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य कहा जाता है । मलिक मुहम्मद जायसी - पद्मावत तुलसीदास - राम चरित मानस आचार्य केशवदास - रामचंद्रिका मैथिलीशरण गुप्त - साकेत अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔद्य' - प्रियप्रवास द्वारिका प्रसाद मिश्र - कृष्णायन जयशंकर प्रसाद - कामायनी रामधारी सिंह 'दिनकर' - उर्वशी राम कुमार वर्मा - एकलव्य बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' - उर्मिला गुरुभक्त सिंह - नूरजहां , विक्रमादित्य अनूप शर्मा - सिद्धार्थ, वर्द्धमान रामानंद तिवारी - पार्वती गिरिजा दत्त शुक्ल 'गिरीश' - तारक वध -------------------------------------------------------------------------------------------------

हिंदी साहित्य के इतिहासकार और उनके ग्रंथ

हिंदी साहित्य के मुख्य इतिहासकार और उनके ग्रंथ निम्नानुसार हैं : - गार्सा द तासी : इस्तवार द ला लितेरात्यूर ऐंदुई ऐंदुस्तानी (फ्रेंच विद्वान, फ्रेंच भाषा में, हिंदी साहित्य के पहले इतिहासकार) शिवसिंह सेंगर : शिव सिंह सरोज जार्ज ग्रिर्यसन : द मॉडर्न वर्नेक्यूलर लिट्रैचर आफ हिंदोस्तान मिश्र बंधु : मिश्र बंधु विनोद राम चंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास हजारी प्रसाद द्विवेदी : हिंदी साहित्य की भूमिका; हिंदी साहित्य का आदिकाल; हिंदी साहित्य :उद्भव और विकास राम कुमार वर्मा : हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास धीरेन्द्र वर्मा : हिंदी साहित्य डॉ नगेन्द्र : हिंदी साहित्य का इतिहास; हिंदी वांड्मय 20वीं शती -------------------------------------------------------------------------------------------------

हिंदी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन

हिंदी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन सर्वप्रथम आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया । इसके संबंध में उनका मत था कि - जिस कालखंड के भीतर किसी विशेष ढ़ंग की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़ती है , वही एक अलग काल माना गया है और उसका नामकरण उन्हीं रचनाओं के स्वरूप के अनुसार किया गया है । किसी एक ढ़ंग की रचना की प्रचुरता से अभिप्राय यह है कि शेष दूसरे ढ़ंग की रचनाओं में से चाहे किसी एक ढ़ंग की रचना को लें, वह परिमाण में प्रथम के बराबर न होगी । ...दूसरी बात है ग्रंथों की प्रसिद्धि । किसी एक काल के भीतर एक ढ़ंग के बहुत अधिक प्रसिद्ध ग्रंथ आते हैं । उस ढ़ंग की रचना उस काल के लक्षण के अंतर्गत मानी जाएगी । ... प्रसिद्धि भी किसी काल की लोक -प्रवृत्ति की प्रतिध्वनि है । इन दोनों बातों की ओर ध्यान रखकर काल-विभाजन का नामकरण किया गया है । आचार्य रामचंद्र शुक्ल के काल-विभाजन को ही हिंदी साहित्य में मान्यता दी गई है । उनके अनुसार हिंदी साहित्य को निम्नलिखित चार कालों में विभक्त किया जा सकता है : - १.आदिकाल (वीरगाथाकाल) : सम्वत् १०५० से १३७५ २.पूर्वमध्यकाल (भक्तिकाल) : सम्वत् १३७५ से १७०० ३.उत्तर-मध्य काल (र

भूमिका

आचार्य रामचद्र शुक्ल मानते हैं कि साहित्य जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है । चित्तवृत्ति बदलती रहती है । फलत: साहित्य का स्वरूप भी बदलता रहता है । प्रारम्भ से अब तक समाज की इस बदलती चित्तवृत्ति की परम्परा को गुण-दोष के आधार पर साहित्य की परम्परा के साथ उसकी उपयुक्तता दर्शाना ही हिंदी साहित्य का इतिहास है । इस ब्लॉग के द्वारा हम विभिन्न युगों में हिंदी साहित्य की प्रवृत्तियों में जो परिवर्तन और प्रयोग हुए उनका क्रमबद्ध किंतु बूंद-बूंद लेखा-जोखा प्रस्तुत करेंगे । यह केवल हिंदी साहित्य की रूपरेखा मात्र होगी । इस यात्रा में आप सभी सहभागी बन सकते हैं; अपनी सार्थक टिप्पणियों द्वारा ।