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रीति काव्य परम्परा

यूं तो भक्तिकाल में ही कृपाराम ने "हिततंगिणी" और नंददास ने "रस-मंजरी" लिख कर हिंदी में लक्षण ग्रंथों का सूत्रपात कर दिया था । लेकिन केशव को ही हिंदी का सर्वप्रथम रीति-गंथकार स्वीकार किया जाता है , क्योंकि सर्वप्रथम उन्हीं ने "कवि-प्रिया" और "रसिक प्रिया" ग्रंथ लिख कर हिंदी में रस और अलंकारों का विस्तृत विवेचन किया था, किंतु केशव के बाद लगभग 50 वर्ष तक रीति ग्रंथों की परम्परा में और कोई कवि नहीं आया । बाद में जो लोग इस परम्परा में आए भी,उन्होंने केशव की प्रणाली को नहीं अपनाया । इसलिए कुछ आलोचक केशव को सर्वप्रथम आचार्य स्वीकार करने में संकोच करते हैं ।  केशव के बाद इस क्षेत्र में आचार्य चिंतामणी आए । उन्होंने "पिंगल", "रस-मंजरी", "श्रृंगार-मंजरी" और "कवि-कल्पतरु" की रचना कर इस विषय का व्यापक प्रतिपादन किया । उनका विवेचन अत्यंत सरल एवं स्पष्ट है । इसके बाद आने वाले कवियों ने भी इन्हीं की शैली को अपनाया । इसलिए प्राय: इन्हें ही हिंदी साहित्य में रीति-ग्रंथों का सूत्रपात करने वाला प्रथम आचार्य स्वीकार किया जाता

रीतिकालीन वीर काव्य के कवि और उनकी रचनाएँ

रीतिकाल में वीर काव्य धारा के दर्शन भी होते हैं । वीर रस की फुटकल रचनाएँ निरंतर रची जाती रही । जिनमें युद्धवीरता और दानवीरता दोनों की बड़ी अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा भरी रहती थी । भूषण इस काव्य-प्रवृत्ति के प्रमुख कवि हैं । भूषण का काव्य युग की प्ररेणा की उपज कहा जा सकता है । अपने युग के जिस आदर्श नायक शिवाजी का भूषण ने अपने काव्य में चित्रण किया है , वह उसकी अपनी मनोभावनाओं का साकार रूप है, किसी सामंत की प्रतिमूर्ति नहीं । भूषण ने शिवाजी और छत्रसाल को काव्य-नायक बनाकर उनके वीर कृत्यों का ओजस्वी भाषा में चित्रण किया है । भूषण के अतिरिक्त लाल, सूदन, पद्माकर, सेनापति, चंद्रशेखर, जोधराज, भान और सदानंद आदि कवियों ने भी वीर-काव्य की रचनाएँ की हैं ।  1. भूषण की मुख्य रचनाएँ हैं :- शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक, भूषण उल्लास, दूषण उल्लास, भूषण-हजारा । 2. सेनापति की वीर काव्य रचनाएँ :- गुरु शोभा, चाणक्य नीति का भावानुवाद 3. लाल : छत्रप्रकाश 4. सूदन : सुजानचरित 5. चंद्रशेखर : हम्मीरहठ

रीतिकालीन रीतिमुक्त भक्ति काव्य

पूर्वमध्य काल (भक्ति काल) में भक्ति की जो निर्गुण,सूफी,राम-काव्य और कृष्ण काव्य की धाराएँ प्रवाहित हुई थी । वे अविरल रूप से रीतिकाल में भी चलती रही । निर्गुण कवियों में यारी साहब (बाबरी संप्रदाय के प्रसिद्ध संत),दरिया साहब, जगजीवन दास, पलटू साहब, चरनदास, शिवनारायण दास और तुलसी साहब (हाथरस वाले) के नाम उल्लेखनीय हैं । सूफी या प्रेमाख्यान कवियों में कासिमशाह, नूरमुहम्मद तथा शेख निसार के नाम उल्लेखनीय हैं । बोधा और चतुर्भुजदास ने भी इस काव्य प्रवृत्ति की रचनाएँ इस काल में की हैं । राम काव्य परम्परा में गुरु गोविन्द सिंह ,जानकी रसिक शरण(अवध सागर), जनकराय, किशोरी शरण(20 राम काव्य), भगवंत राय खिची(रामायण), विश्वनाथ सिंह(6 राम काव्य) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । कृष्ण काव्य में भक्ति की पवित्र धारा पर श्रृंगार हावी हो गया । फलत: राधा-कृष्ण (हरि और राधिका) की आड़ में मानवी श्रृंगार का प्रचलन हो गया ।प्रबंधात्मक कृष्ण-भक्ति काव्य रचनाकारों में ब्रजवासीदास तथा मंचित कवि उल्लेखनीय हैं । मुक्तक कृष्ण-काव्य की बहुलता रही ,ऐसे रचनाकारों में  रूपरसिकदेव, नागरीदास,अलबेली, चाचा हितवृन्दावन दास आदि का नाम

रीतिकालीन रीतिमुक्त नीतिकाव्य

रीतिकाल में रीतिमुक्त नीति काव्य भी रचा जाता रहा । नीतिकाव्य इस युग की एक प्रमुख प्रवृत्ति रही । वृन्द,गिरधर कविराय, दीनदयाल गिरि, लाल और सूदन जैसे कवियों ने विपुल नीति साहित्य की रचना की । वृन्द ने सरल,सरस भाषा में कलापूर्ण सूक्तियाँ कही हैं । गिरधर कविराय ने व्यवहार और नीति से संबद्ध कुंडलियाँ लिखी । दीनदयाल गिरि ने स्वच्छ, सुव्यवस्थित और परिष्कृत भाषा में जो अन्योक्तियाँ कही,वे नीतिसाहित्य में मूर्धन्य स्थान रखती हैं । नीतिकाव्य के इन कवियों की रचनाएँ इस प्रकार हैं ::- 01. वृंद : 1.वृंद सतसई 2.भाव पंचाशिका 3.यमक सतसई 4.श्रृंगार शिक्षा 5.चोर पंचाशिका 6.पवन पचीसी 7.सत्यस्वरूप 8.भारतकथा 9.समेतशिखर 02. गिरधर कविराय : सांई (कुंडलियाँ) 03. लाल : 1.छत्र प्रकाश 2.विष्णु विलास  04. सूदन :1.सुजान चरित  05. दिनदयाल गिरि :   06. बैताल :  07. सम्मन :   दीनदयाल गिरि की अन्योक्तियों के कुछ उदाहरण : हे पांडे यह बात को,को समुझै या ठांव ।  इतै न कोऊ हैं सुधी, यह ग्वारन गांव ॥ यह ग्वारन को गांव, नांव नहिं सूधे बोले । बसै पसुन के संग अंग ऐंडे करि डौलले ॥ बरनै दीनदयाल छाछ भरि लीजै भांडे । कहा कहौ

रीतिमुक्त कवि और उनकी रचनाएँ

रीतिकाल में रीतिमुक्त या स्वछंद काव्य भी रचा जा रहा था । इस प्रकार का काव्य भाव-प्रधान था । इसमें शारीरिक वासना की गंध नहीं , वरन हृदय की अतृप्त पुकार है । राधा और कृष्ण की लीलाओं के गान के बहाने नहीं, बल्कि सीधे-सादे रूप में वैयक्तिक रूप की स्पष्ट अभिव्यक्ति है । भावात्मकता, वक्रता,लाक्षणिकता, भावों की वैयक्तिकता, मार्मिकता,स्वच्छंदता आदि इस वर्ग के कवियों की विशेषताएँ हैं । इस वर्ग के कवियों में घनानंद, आलम, बोधा और ठाकुर के नाम प्रमुख हैं । इनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं :-  1. घनानंद : प्रमुख रचनाएँ : 1.सुजानसागर 2. विरहलीला 3.कोकसार 4. रसकेलिबल्ली 5. कृपाकांड ।  2. आलम : 1. आलम केलि, 2.सुदामा चरित 3.श्यामस्नेही 4.माधवानलकामकंदला । 3. बोधा : 1.विरहबारीश 2.इश्कनामा ।  4. ठाकुर : 1.ठाकुर ठसक । 

रीतिसिद्ध कवि

रीतिसिद्ध उन कवियों को कहा गया है, जिनका काव्य ,काव्य के शास्त्रीय ज्ञान से तो आबद्ध था, लेकिन वे लक्षणों के चक्कर में नहीं पड़े । लेकिन इन्हें काव्य-शास्त्र का पूरा ज्ञान था । इनके काव्य पर काव्यशास्त्रीय छाप स्पष्ट थी । रीतिसिद्ध कवियों में सर्वप्रथम जिस कवि का नाम लिया जाता है, वह है : बिहारी । बिहारी रीतिकाल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं । बिहारी की एक ही रचना मिलती है, जिसका नाम है "बिहारी सतसई" । सतसई का शाब्दिक अर्थ है : सात सौ (सप्तशती) । "बिहारी सतसई" में सात सौ दौहे होने के कारण इसका नाम सतसई रखा गया । डॉ. गणपति चंद्र गुप्त "बिहारी सतसई" लिखने का कारण कुछ यूं बताते हैं : कहते हैं कि जयपुर के महाराजा जयसिंह अपनी एक नवविवाहिता रानी के सौंदर्यपाश में इस प्रकार बंध गए थे कि वे रात-दिन महल में ही पड़े रहते थे । इससे उनका राज-काज चौपट होने लग गया । सभी राज्य-अधिकारी परेशान हो गए । सब चाहते थे कि राजा महल से निकल कर बाहर आए, किंतु किसी की हिम्मत नहीं थी कि वह इसके लिए राजा से प्रार्थना कर सके । ऐसे ही समय में महाकवि घूमते हुए जयपुर पहुँचे । उन्होंने सारी

रीति ग्रंथकार कवि और उनकी रचनाएँ

संस्कृत में काव्यांग निरूपण शास्त्रज्ञ आचार्य करते थे, कवि नहीं । वे काव्यविवेचन के दौरान प्रसिद्ध कवियों की रचनाओं को उद्धृत करके अपनी बात समझाते थे । लेकिन रीतिकाल में रीति ग्रंथ लिखने वाले या काव्य पर विचार करने वाले आचार्य नहीं ,मूलत: कवि ही थे । इसलिए उन्होंने नायकों,नायिकाओं,रसों,अलंकारों,छंदों के विवेचन पर कम, इनके दिए गए लक्षणों के उदाहरणों के रूप में रचनाओं पर ज्यादा ध्यान दिया । उन्होंने अन्य कवियों की रचनाओं के उदाहरण नहीं दिए बल्कि स्वयं काव्य रचा । इसलिए इस काल के रीति ग्रंथाकार आचार्य और कवि दोनों एक ही होने लगे । लेकिन इस संदर्भ में यह स्मरण रखना चाहिए कि ये दोनों कार्य , कवि-कर्म और आचार्य कर्म परस्पर विरोधी हैं । कवि के लिए भावप्रवण हृदय चाहिए वहीं आचार्य कर्म की सफलता के लिए प्रौढ़-मस्तिष्क और सर्वांग-पूर्ण संतुलित विवेचन शक्ति की अपेक्षा हुआ करती है । रीतियुगीन रीति-ग्रंथाकार पहले कवि है, आचार्य कर्म तो उसे परम्परावश और राजदरबार में रीतिशास्त्र के ज्ञान की अनिवार्यतावश अपनाना पड़ा । इस युग के प्रमुख रीतिग्रंथकार कवि और उनकी रचनाओं का विवरण हम नीचे दे रहे हैं :    क

रीतिकाल : सामान्य परिचय

हिंदी साहित्य में सम्वत् 1700 से 1900 (वर्ष 1643ई. से 1843 ई. तक) का समय रीतिकाल के नाम से जाना जाता है । भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का पूर्व मध्यकाल और रीतिकाल को उत्तर-मध्य काल भी कहा जाता है । भक्ति काल और रीति काल दोनों के काल को हिंदी साहित्य का मध्यकाल कहा जा सकता है । रीति का अर्थ है : पद्धति । रस, अलंकार, गुण, ध्वनि और नायिका भेद आदि काव्यांगों के विवेचन करते हुए, इनके लक्षण बताते हुए रचे गए काव्य की प्रधानता के कारण इस काल को रीतिकाल कहा गया । रीतिग्रंथों, रीतिकाव्यों तथा अन्य प्रवृत्तियों के कवियों की रचनाओं में भी श्रृंगार रस की प्रधानता के कारण इस काल को श्रृंगारकाल भी कहा जाता है । इसके अतिरिक्त इस काल को अलंकार काल और कला काल की संज्ञाएँ भी दी गई, लेकिन रीतिकाल नाम ही सर्वाधिक सार्थक और प्रचलित नाम है । रीतिकाल के प्रवर्त्तक कवियों में केशवदास और चिंतामणि का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । लेकिन सर्वामान्य रूप से केशवदास को ही रीतिकाल का प्रवर्त्तक कवि माना गया है । रीतिकाल के कवियों को मुख्यत: तीन वर्गों में रखा गया है :- 1. रीतिग्रंथकार कवि या लक्षण बद्ध कवि या रीतिब

भक्तिकाल की राजनैतिक व सामाजिक परिस्थितियाँ

राजनैतिक परिस्थितियाँ भक्ति काल का समय संवत् 1400 (सन 1343) से संवत् 1700 (सन 1643) तक माना गया है । यह दौर युद्ध, संघर्ष और अशांति का समय है । मुहम्मद बिन तुगलक से लेकर शाहजहाँ तक का शासन काल इस सीमा में आता है । इस अवधि में तीन प्रमुख मुस्लिम वंशों-पठान, लोदी और मुगल का साम्राज्य रहा । छोटे-छोटे राज्यों को हड़पने और साम्राज्य विस्तार की अभिलाषा ने युद्धों को जन्म दिया । इस राज्य संघर्ष परम्परा का आरम्भ सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक से शुरु हुआ । तुगलक के बाद सुलतान मुहम्मद शाह गद्दी पर बैठा । सन 1412 में उसकी मृत्यु के साथ तुगलक वंश समाप्त हुआ । इसके बाद लोदी वंश के बादशाहों ने साम्राज्यवाद को बढ़ावा दिया । अंतिम बादशाह इब्राहिम लोदी था, जिसका अंत सन् 1526 में हुआ । इसके बाद मुगल वंश का शासन आरंभ हुआ । जिसमें क्रमश: बाबर,हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर तथा शाहजहाँ ने राज्य किया ।  मुगलवंशीय बादशाह यद्यपि काव्य और कला प्रेमी थे, किंतु निरंतर युद्धों, अव्यवस्थित शासन-व्यवस्था और पारिवारिक कलहों से देश में अशांति ही रही । मुगलवंशीय शासकों में अकबर का राज्य सभी दृष्टियों से सर्वोपरि और व्यवस्थित रह

हिंदी साहित्य का स्वर्णिम काल

भक्तिकाल नि:संदेह हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग है । इस काल का साहित्य अपने पूर्ववर्ती एवं परवर्ती साहित्य से निश्चित रूप उत्कृष्ट है । आदिकाल में कविता वीर और शृंगार रस प्रधान थी । कवि राजाश्रित थे । आश्रयदाता का गुणगान ही उनका लक्ष्य था । जीवन के अन्य क्षेत्रों की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया । दूसरे, आदिकालीन साहित्य की प्रामाणिकता संदिग्ध है । भक्तिकाल के उत्तरवर्ती साहित्य में अधिकांश साहित्य अश्लील शृंगार है, जो जीवन की प्रेरणा नहीं । रीतिकालीन कविता स्वान्त: सुखाय अथवा जनहिताय न होकर सामन्त: सुखाय है । इसके विपरीत्त भक्ति साहित्य राजाश्रय से दूर भक्ति की मस्ती में स्वान्त: सुखाय व जनहिताय है । समाज का प्रेरणा स्रोत है । हाँ, आधुनिक काल का साहित्य व्यापकता एवं विविधता की दृष्टि से भक्तिकाल से आगे है । परंतु अनुभूति की गहराई एवं भाव-प्रवणता की दृष्टि से वह भक्ति काल के साहित्य की तुलना में नहीं ठहरता । आधुनिक काल का साहित्य बुद्धिप्रधान है जबकि भक्तिकाल का साहित्य भावप्रधान । ह्रदय बुद्धि पर हावी है । डॉ. श्याम सुंदर दास के शब्दों में -"जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी , सूर जैसे

क्या भक्तिकाल एक हारी हुई मनोवृत्ति का परिणाम था ?

कुछ विद्वानों का विचार है कि भक्तिकाल हारी हुई जाति की मनोवृत्ति का परिणाम है । पिछले चार पाँच सौ वर्षों से लड़ते -लड़ते भारतीय बहुत निराश हो चुके थे । राजनैतिक दृष्टि से वे परतंत्र हो गए थे और सामाजिक दृष्टि से भी स्वयं को हीन या पतित अनुभव कर रहे थे । देश में एकछत्र राज्य का अभाव था । जनता में भय था । ऐसे निराशा और असहाय वातावरण में ईश्वर की ओर उनकी आस्था का बढ़ना सहज ही था । उन्हें एकमात्र भगवान का सहारा दिखाई दिया । डॉ. ग्रियर्सन इसे ईसाइयत की देन मानते हैं । उनके विचार से भारत में भक्ति का प्रारम्भ तब हुआ, जब यहाँ ईसाई आकर बस गए और उन्होंने अपने धर्म का प्रचार आरम्भ कर दिया ।  ग्रियर्सन का यह मत सर्वथा निराधार है, क्योंकि इसाइयों के आगमन से बहुत पहले से ही (वैदिक काल से) इस देश में भक्ति का अस्तित्व रहा है । आचार्य शुक्ल के मत से भारत में भक्ति का उदय मुसलमानों की विजय की प्रतिक्रिया में हुआ । उनका कथन है कि इतने भारी राजनीतिक उथल-फेर के पीछे हिंदू जन समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी सी छाई रही । अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की भक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक

कृष्णभक्ति काव्य शाखा की प्रवृत्तियाँ

कृष्ण भक्ति काव्य में रस,आनंद, और प्रेम की अभिव्यक्ति का माध्यम श्रीकृष्ण या राधाकृष्ण की लीला बनी है । इस काव्य की प्रवृत्तियाँ इस प्रकार से हैं :- विषय-वस्तु की मौलिकता : हिंदी साहित्य में कृष्ण काव्य की सृष्टि से पूर्व संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य में कृष्ण भक्ति की पर्याप्त रचनाएँ मिलती हैं । यद्यपि इस सारे कृष्णकाव्य का आधारग्रंथ श्रीमद भागवत है, परंतु उसे मात्र भागवत का अनुवाद नहीं कहा जा सकता । कृष्ण चरित्र के वर्णन में इस धारा के कवियों ने मौलिकता का परिचय दिया है । भागवत में कृष्ण के लोकरक्षक रूप पर अधिक बल दिया है, जबकि भक्त कवियों ने उसके लोक रंजक रूप को ही अधिक उभारा है । इसके अतिरिक्त भागवत में राधा का उल्लेख नहीं है, जबकि इस साहित्य में राधा की कल्पना करके प्रणय में अलौकिक भव्यता का संचार हुआ है । विद्यापति और जयदेव का आधार लेते हुए भी इन कवियों के प्रणय-प्रसंग में स्थूलता का सर्वथा अभाव है । अपने युग और परिस्थितियों के अनुसार कई नए प्रसंगों की उद्भावना हुई है । ब्रह्म के सगुण रूप का मंडन और निर्गुण रूप का खंडन : कृष्णभक्त कवियों ने ब्रह्म के साकार और सगुण रूप को

कृष्णभक्ति को समर्पित अन्य कवि

इस युग में कृष्ण भक्ति को समर्पित कुछ अन्य कवि भी हुए, जिसे किसी विचारधारा के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता । जैसे मीरा, रहीम, रसखान । मीरा हिंदी की श्रेष्ठ भक्त कवयित्री है । इनकी भक्ति को हम सगुण-निर्गुण में नहीं रख सकते । वे तो कृष्ण-प्रेम में इतनी तल्लीन हो जाती थी, कि उन्हें अपने तन की भी सुध नहीं रहती थी । जैसी साधना, तन्मयता, सरलता,विरह-वेदना, प्रेम की पीड़ा मीरा के पदों में मिलती है, वैसी हिंदी साहित्य में अन्यत्र कहीं नहीं । मीरा बाई के नाम से निम्नलिखित सात रचनाएँ मिलती हैं : 1. नरसी जी रो माहेरी 2. गीत-गोविंद की टीका 3. मीराबाई की मलार 4. राग-गोविंद 5. सोरठ के पद 6. मीरानी 7. मीरा के पद । इन रचनाओं में से मीरा की पदावली को ही विद्वान प्रामाणिक मानते हैं । उनके ये गीत ब्रज, राजस्थानी और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं । रहीम : रहीम का पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था । ये सम्राट अकबर के संरक्षक मुगल सरदार बैरमखाँ के पुत्र थे । अरबी और फारसी के अतिरिक्त रहीम संस्कृत के दिद्वान थे और हिंदी कविता में इनकी विशेष रुचि थी । सम्राट के नवरत्नों में इनकी गिनती होती थी । अकबर के समय में ये प्

कृष्णभक्ति काव्य शाखा के अष्टछाप कवि और उनकी रचनाएँ

कृष्ण भक्ति शाखा के प्रचारकों में श्री वल्लभाचार्य का स्थान शीर्ष पर है । जैसा कि हम बता आए हैं कि इन्होंने शुद्धाद्वैतवाद की स्थापना की । इनकी उपासना की पद्धति पुष्टिमार्ग के नाम से जानी जाती है । पुष्टिमार्ग में भगवान के अनुग्रह को पाने पर सर्वाधिक जोर दिया गया है । वल्लभ संप्रदाय के इस पुष्टिमार्ग में अनेक भक्त कवियों ने दीक्षित होकर कृष्ण भक्ति का प्रसार किया । वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित पुष्टिमार्ग उनके पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ के प्रयत्नों से विकसित हुआ । विट्ठल नाथ ने सम्वत 1602 में अपने पिता वल्लभाचार्य के 84 शिष्यों में से चार तथा अपने 252 शिष्यों में से चार को लेकर आठ प्रसिद्ध भक्त कवि संगीतज्ञों की मंडली की स्थापना की । जो अष्टछाप के नाम से प्रसिद्ध है । ये आठों भक्त कवि दिन के आठों पहर क्रम से कृष्ण भक्ति का गुणगान करते थे । अष्टछाप के इन कवियों को वल्लभ संप्रदाय में कृष्ण के अष्टसखा भी कहा जाता है । वल्लभाचार्य के चार शिष्य थे : 1. सूरदास 2. कृष्णदास 3. परमानंद दास 4. कुंभनदास । गोस्वामी विट्ठलनाथ के चार शिष्य थे : 1. गोविंदस्वामी 2. छीत स्वामी 3. चतुर्भुजदास 4. नंददास ।

कृष्ण भक्ति साहित्य पर विभिन्न संप्रदायों का प्रभाव

भक्ति काल की चौथी काव्य-धारा का नाम है : कृष्णभक्ति काव्य धारा । इस भक्ति धारा पर विभिन्न संप्रदायों का प्रभाव है; ये संप्रदाय इस प्रकार हैं :- विष्णु संप्रदाय : इस संप्रदाय के प्रवर्तक विष्णु गोस्वामी हैं । इसे रुद्र संप्रदाय भी कहा जाता है । यह शुद्धाद्वैतवादी है । निम्बार्क संप्रदाय : इस संप्रदाय के प्रवर्तक निम्बक आचार्य हैं । इसका प्रमुख ग्रंथ "वेदांत पारिजात सौरभ" है । यह दश श्लोकी द्वैताद्वैतवादी है । इस संप्रदाय में कृष्ण के वामांग में सुशोभित राधा के साथ कृष्ण की उपासना का विधान है । माध्व-संप्रदाय : इसके प्रवर्तक माध्वाचार्य है । इसने द्वैतवाद को प्रश्रय दिया । श्री संप्रदाय : इसके प्रवर्तक रामानुजाचार्य हैं । इनके ग्रंथ हैं : वेदांत संग्रह, श्री भाष्य, गीता भाष्य । विशिष्टाद्वैत की स्थापना इनके द्वारा हुई । रामानंदी संप्रदाय : इस संप्रदाय के संस्थापक रामानंद हैं । इन्होंने विशिष्टाद्वैतवाद को मान्यता दी । वल्लभ संप्रदाय : इसके प्रवर्तक वल्भाचार्य हैं । इन्होंने शुद्ध अद्वैतवाद को मान्यता दी । इन्होंने श्रीमद्भागवत की तत्त्वबोधिनी टीका लिखी । वल्लभ संप्रदाय में

रामभक्ति शाखा की प्रवृत्तियाँ

रामकाव्य धारा का प्रवर्तन वैष्णव संप्रदाय के स्वामी रामानंद से स्वीकार किया जा सकता है । यद्यपि रामकाव्य का आधार संस्कृत साहित्य में उपलब्ध राम-काव्य और नाटक रहें हैं । इस काव्य धारा के अवलोकन से इसकी निम्न विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं :- राम का स्वरूप : रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में श्री रामानंद के अनुयायी सभी रामभक्त कवि विष्णु के अवतार दशरथ-पुत्र राम के उपासक हैं । अवतारवाद में विश्वास है । उनके राम परब्रह्म स्वरूप हैं । उनमें शील, शक्ति और सौंदर्य का समन्वय है । सौंदर्य में वे त्रिभुवन को लजावन हारे हैं । शक्ति से वे दुष्टों का दमन और भक्तों की रक्षा करते हैं तथा गुणों से संसार को आचार की शिक्षा देते हैं । वे मर्यादापुरुषोत्तम और लोकरक्षक हैं । भक्ति का स्वरूप : इनकी भक्ति में सेवक-सेव्य भाव है । वे दास्य भाव से राम की आराधना करते हैं । वे स्वयं को क्षुद्रातिक्षुद्र तथा भगवान को महान बतलाते हैं । तुलसीदास ने लिखा है : सेवक-सेव्य भाव बिन भव न तरिय उरगारि । राम-काव्य में ज्ञान, कर्म और भक्ति की पृथक-पृथक महत्ता स्पष्ट करते हुए भक्ति को उत्कृष्ट बताया गया है । तुलसी दास ने भक्ति और

सगुण भक्ति धारा की रामभक्ति शाखा के कवि और उनकी रचनाएँ

रामकाव्य का आधार संस्कृत राम-काव्य तथा नाटक रहे । इनमें बाल्मीकि-रामायण, अध्यात्म-रामायण, रघुवंश, उत्तररामचरित, हनुमन्नाटक, प्रसन्नराघव नाटक, बाल रामायण,विष्णु-पुराण, श्रीमद्भागवत, भगवद्गीता आदि उल्लेख्य हैं । इस काव्य परम्परा के सर्वश्रेष्ठ कवि महाकवि तुलसीदास हैं । किंतु हिंदी में सर्वप्रथम रामकथा लिखने का श्रेय विष्णुदास को है ; इस काव्य धारा के कवियों और उनकी रचनाओं का उल्लेख नीचे दिया गया है : - तुलसीदास : इनके कुल 13 ग्रंथ मिलते हैं :-1. दोहावली 2. कवितावली 3. गीतावली 4.कृष्ण गीतावली 5. विनय पत्रिका 6. राम लला नहछू 7.वैराग्य-संदीपनी 8.बरवै रामायण 9. पार्वती मंगल 10. जानकी मंगल 11.हनुमान बाहुक 12. रामाज्ञा प्रश्न 13. रामचरितमानस विष्णुदास : 1.रुक्मिणी मंगल 2. स्नेह लीला ईश्वरदास : 1.भरतमिलाप 2. अंगदपैज नाभादास : 1. रामाष्टयाम 2. भक्तमाल 3. रामचरित संग्रह अग्रदास :1.अष्टयाम 2. रामध्यान मंजरी 4.हितोपदेश या उपाख्यान बावनी प्राणचंद चौहान :1. रामायण महानाटक ह्रदयराम :1.हनुमन्नाटक 2. सुदामा चरित 3. रुक्मिणी मंगल । तुलसीदास की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय : दोहावली : इसमें नीति, भक्ति, राम

प्रेम-मार्गी काव्य की प्रवृत्तियाँ

प्रेम-मार्गी या प्रेमाश्रयी शाखा के कवियों ने सर्वव्यापक परमात्मा को पाने के लिए प्रेम को साधन माना है । इस शाखा के प्राय: सभी कवि सूफी साधक थे । इसी लिए इसे सूफी साहित्य की संज्ञा भी दी जाती है । सूफी साधना मूल रूप से ईरान की देन है । सूफी शब्द की व्युत्पत्ति सूफ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है फूस । यह शब्द उन संतों के लिए प्रयुक्त होता था, जो फूस(टाट) से बने वस्त्र पहनते थे और एक तरह से वैरागी का जीवन जीते थे ।सूफी परमात्मा को प्रेम का स्वरूप मानते हैं और उसे प्रेम द्वारा पाने की बात कहते हैं । प्रेम की पीर इस साधना का सबसे बड़ा सम्बल है । इन कवियों ने लोक -प्रचलित प्रेमाख्यान चुनकर उन्हें इस प्रकार से काव्य-रूप दिया कि लोग प्रेम के महत्व को पहचाने और प्रभु -प्रेम में लीन हों । सूफी फकीरों ने हिंदू साधुओं के रहन सहन, रंग-ढ़ंग, भाषा और विचार-शैली को अपना कर अपने ह्रदय की उदारता का परिचय दिया । अपनी स्नेहसिक्त प्रेममाधुरी युक्त वाणी से भारतीय जीवन की गहराई को छुआ । आतंकित और पीड़ित जनता के घावों को मरहम लगाने का कार्य करके उन्होंने हिंदू-यवन के भेद-भाव को दूर करने में योग दिया। इस काव्य

प्रेम-मार्गी शाखा के कवि और उनकी रचनाएँ

आज हम प्रेम-मार्ग शाखा के कवियों और उनकी रचनाओं पर प्रकाश डालेंगे - इस शाखा के प्रतिनिधि कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं । अन्य कवि और उनकी कृतियाँ निम्नानुसार हैं :- मलिक मुहम्मद जायसी : आखिरी कलाम, अखरावट,चित्ररेखा, मसलानामा, कहरनामा,पद्मावत । भाषा ठेठ अवधि । शेख कुतुबन : मृगावती । मंझन :मधुमालती । मुल्ला दाऊद : चंदायन (चंदावत) उसमान : चित्रावली शेखनबी : ज्ञानदीप कासिमशाह : हंसजवाहिर नूरमुहम्मद : इन्द्रावती, अनुराग बांसुरी असाइत : हंसावली पुहकर : रसरतन जान कवि : कनकावती, मधुकर मालती जलालुद्दीन : जमाल पचीसी ख्वाज़ा अहमद : नूरजहां (भाषा मनसवी शैली) नसीर : प्रेम-दर्पण शेख रहीम : प्रेम-रस मधुकर : मधुमालती जान : रत्नावली रंजन : प्रेमवन जीवन मृगेन्द्र :प्रेम पयोनिधी ईश्वरदास : सत्यवती कथा दामोदर :लखमनसेन पद्मावती कथा गणपति(आलम) : माधवानल कामकंदला नरपति व्यास : नल-दमयंती दु:खहरणदास : पहुपावती

ज्ञानाश्रयी निर्गुण काव्य की प्रवृत्तियाँ

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण संत काव्य धारा को निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा नाम दिया । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे निर्गुण भक्ति साहित्य कहते हैं । रामकुमार वर्मा केवल संत - काव्य नाम से संबोधित करते हैं । संत शब्द से आशय उस व्यक्ति से है , जिसने सत परम तत्व का साक्षात्कार कर लिया हो । साधारणत : ईश्चर - उन्मुख किसी भी सज्जन को संत कहते हैं , लेकिन वस्तुत : संत वही है जिसने परम सत्य का साक्षात्कार कर लिया और उस निराकार सत्य में सदैव तल्लीन रहता हो । स्पष्टत : संतों ने धर्म अथवा साधना की शास्त्रीय ढ़ंग से व्याख्या या परिभाषा नहीं की है । संत पहले संत थे बाद में कवि । उनके मुख से जो शब्द निकले वे सहज काव्य रूप में प्रकट हुए । आज की चर्चा हम इसी संत काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों ( विशेषताओं ) को लेकर कर रहें हैं :- निर्गुण ईश्वर : संतों की अनुभूति में ईश्वर निर्गुण, निराकार और विराट है । स्पष्टत: ईश्वर के सगुण रूप का खंडन होता है । कबीर के अनुसार :- द

ज्ञानमार्गी शाखा के कवि और उनकी रचनाएँ

इस शाखा के प्रवर्तक कवि कबीरदास हैं । इस धारा के प्रमुख कवि और उनकी रचनाओं की संक्षिप्त जानकारी नीचे प्रस्तुत है :- कबीर दास : इनका मूल ग्रंथ बीजक है । इसके तीन भाग हैं : पहला भाग साखी है, जिसमें दोहे हैं । दूसरे भाग में शब्द हैं जो गेयपद हैं । तीसरा भाग रमैनी का है जिसमें सात चौपाई के बाद एक दोहा आता है । इसके अतिरिक्त कबीर ग्रंथावली और श्री आदि ग्रंथ में भी इनके पद मिलते हैं । इनकी भाषा को एक अलग ही नाम मिल गया है - सधुक्कड़ी भाषा का । रैदास या रविदास : रैदास की बानी । इनके पद और दोहे भी श्री गुरु ग्रंथ साहिब, आदि ग्रंथ आदि में मिलते हैं । इनकी भाषा में फारसी शब्दों की प्रधानता है । गुरु नानक देव : जपुजी साहिब, सिद्धगोष्ठी, आसा दी वार, दत्तिसनी ओंकार, बारहमाहा, मझ दी वार, मलार की वार । आपकी भाषा में ब्रज,गुरुमुखी और नागरी का पुट है । नामदेव : संत नामदेव के पद भी आदि ग्रंथ में संकलित हैं । इनकी भाषा मराठी है । संत दादू-दयाल : हरडे वाणी, अंगवधु । आपकी भाषा राजस्थानी मिश्रित पश्चिमी हिंदी है । सुंदर दास : इनकी रचनाएँ सुंदर ग्रंथावली में मिलती हैं । इनकी भाषा ब्रज है । संत मलूक दास :

भक्ति-काल

हिंदी साहित्य में सम्वत १३७५ से सम्वत १७०० तक (14वीं शती से लेकर 16वीं शती तक) का समय भक्ति काल के नाम से जाना जाता है । तीन सौ वर्षों की यह लम्बी धारा मुख्त: दो भागों में प्रवाहित हुई :- निर्गुण भक्ति धारा सगुण भक्ति धारा समय के साथ ये दोनों धाराएँ आगे दो-दो उपधाराओं में बँट गई । निर्गुण भक्ति धारा निम्न दो शाखाओं में बँट गई :- ज्ञानमार्गी शाखा प्रेममार्गी शाखा इसी प्रकार सगुण भक्ति धारा निम्न दो उप शाखाओं में बँट गई :- कृष्ण भक्ति शाखा रामभक्ति शाखा ज्ञानमार्गी शाखा : इस शाखा के प्रवर्तक और मुख्य कवि कबीरदास हैं । इस शाखा ने समाज-सुधार पर विशेष बल दिया । इसलिए इस शाखा के साहित्य को संत-साहित्य भी कहते हैं । प्रेममार्गी शाखा : इस शाखा पर सूफीमत का विशेष प्रभाव है । इसलिए इस शाखा के साहित्य को सूफी साहित्य भी कहा जाता है । इस शाखा के प्रवर्तक और मुख्य कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं । कृष्णभक्ति शाखा : इस शाखा के कवियों ने भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं का मनोरंजक चित्रण किया है । इस धारा के मुख्य कवि हैं : सूरदास । रामभाक्ति शाखा : इस शाखा के कवियों ने राम के शील, शक्ति और सौंदर्य युक्त रू