संदेश

2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नई कविता की प्रवृत्तियां

प्रयोगवाद और नई कविता की प्रवृत्तियों में कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता। नई कविता प्रयोगवाद की नींव पर ही खड़ी है। फिर भी कथ्य की व्यापकता और दृष्टि की उन्मुक्तता,ईमानदार अनुभूति का आग्रह,सामाजिक एवं व्यक्ति पक्ष का संश्लेष,रोमांटिक भावबोध से हटकर नवीन आधुनिकता से संपन्न भाव-बोध एक नए शिल्प को गढ़ता है। वादमुक्त काव्य,स्वाधीन चिंतन की व्यापक स्तर पर प्रतिष्ठा,क्षण की अनुभूतियों का चित्रण,काव्य मुक्ति, गद्य का काव्यात्मक उपयोग,नए सौंदर्यबोध की अभिव्यक्ति,अनुभूतियों में घनत्व और तीव्रता,राजनीतिक स्थितियों पर व्यंग्य,नए प्रतीकों-बिम्बों-मिथकों के माध्यम से तथा आदर्शवाद से हटकर नए मनुष्य की नई मानववादी वैचारिक भूमि की प्रतिष्ठा नई कविता की विशेषताएं रहीं हैं। अब इन विशेषताओं पर एक चर्चा- 1.अनुभूति की सच्चाई तथा यथार्थ बोध:- अनुभूति क्षण की हो या समूचे काल की,किसी सामान्य व्यक्ति (लघुमानव)की हो या विशिष्ट पुरुष की,आशा की हो या निराशा की वह सब कविता का कथ्य है। समाज की अनुभूति कवि की अनुभूति बन कर ही कविता में व्यक्त हो सकती है। नई कविता इस वास्तविकता को स्वीकार करती है और ईमानदारी से उ

नई कविता

प्रयोगवाद व नई कविता में भेद रेखा स्पष्ट नहीं है। एक प्रकार से प्रयोगवाद का विकसित रूप ही नई कविता है। प्रयोगवाद को इसके प्रणेता अज्ञेय कोई वाद नहीं मानते। वे तार-सप्तक(1943) की भूमिका में केवल इतना ही लिखते हैं कि संगृहीत सभी कवि ऐसे होंगे जो कविता को प्रयोग का विषय मानते हैं जो यह दावा नहीं करते कि काव्य का सत्य उन्होंने पा लिया है। केवल अन्वेषी ही अपने को मानते हैं।" साथ ही अज्ञेय ने यह भी स्पष्ट किया कि "वे किसी एक स्कूल के नहीं हैं,किसी मंजिल पर पहुंचे हुए नहीं हैं,अभी राही हैं-राही नहीं,राहों के अन्वेषी। उनमें मतैक्य नहीं है,सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है। इस प्रकार केवल काव्य के प्रति एक अन्वेषी का दृष्टिकोण उन्हें समानता के सूत्र में बांधता है। प्रयोगवाद नाम इस काव्य-विशेष के विरोधियों या आलोचकों द्वारा दिया गया। अज्ञेय ने प्रयोगवाद नाम का लगातार प्रतिवाद किया है। उनका कहना है कि "प्रयोग कोई वाद नहीं है-फिर भी आश्चर्य की बात है कि यह नाम व्यापक स्वीकृति पा गया। प्रयोग शब्द जैसे'एक्सपेरिमेंट का हिंदी पर्याय है वैसा ही 'एक्सपेरिमेंटलिज्म ज

प्रयोगवाद के कवि और उनकी रचनाएं

प्रयोगवाद के कवियों में हम सर्वप्रथम तारसप्तक के कवियों को गिनते हैं और इसके प्रवर्तक कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ठहरते हैं। जैसा कि हम पहले कह आए हैं कि तारसप्तक 1943 ई. में प्रकाशित हुआ। इसमें सातकवियों को शामिल किए जाने के कारण इसका नाम तारसप्तक रखा गया। इन कवियों को अज्ञेय ने पथ के राही कहा। ये किसी मंजिल पर पहुंचे हुए नहीं हैं,बल्कि अभी पथ के अन्वेषक हैं। इसी संदर्भ में अज्ञेय ने प्रयोग शब्द का प्रयोग किया, जहां से प्रयोगवाद की उत्पत्ति स्वीकार की जाती है। इसके बाद 1951 ई. में दूसरा,1959 ई में तीसरा और 1979 में चौथा तारसप्तक प्रकाशित हुए। जिनका संपादन स्वयं अज्ञेय ने किया है। आइए,सर्वप्रथम हम इन चारों तारसप्तकों के कवियों के नामों से परिचित हो लें। 1. तारसप्तक के कवि: अज्ञेय,भारतभूषण अग्रवाल,मुक्तिबोध,प्रभाकर माचवे,गिरिजाकुमार माथुर,नेमिचंद्र जैन,रामविलास शर्मा। 2. दूसरे तारसप्तक के कवि: भवानीप्रसाद मिश्र, शंकुत माथुर, नरेश मेहत्ता,रघुवीर सहाय,शमशेर बहादुर सिंह,हरिनारायण व्यास,धर्मवीर भारती। 3. तीसरे तारसप्तक के कवि: प्रयागनारायण त्रिपाठी, कीर्ति चौधरी, मदन व

प्रयोगवादी कविता की प्रवृत्तियां

प्रयोगवादी कविता में मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रवृत्तियां देखी गई हैं:- 1. समसामयिक जीवन का यथार्थ चित्रण: प्रयोगवादी कविता की भाव-वस्तु समसामयिक वस्तुओं और व्यापारों से उपजी है। रिक्शों के भोंपू की आवाज,लाउड स्पीकर का चीत्कार,मशीन के अलार्म की चीख,रेल के इंजन की सीटी आदि की यथावत अभिव्यक्ति इस कविता में मिलेगी। नलिन विलोचन शर्मा ने बंसत वर्णन के प्रसंग में लाउड स्पीकर को अंकित किया। प्रत्युष-वर्णन में उन्होंने रिक्शों के भोंपू की आवाज का उल्लेख किया। एक अन्य स्थल पर रेल के इंजन की ध्वनि का उल्लेख हुआ। मदन वात्स्यायन ने कारखानों में चलने वाली मशीनों की ध्वनि का ज्यों का त्यों उल्लेख किया है। समसामयिकता के प्रति इनका इतना अधिक मोह है कि इन कवियों ने उपमान तथा बिम्बों का चयन भी समसामयिक युग के विभिन्न उपकरणों से किया है। भारत भूषण अग्रवाल ने लाउड स्पीकर तथा टाइपराइटर की की को उपमान के रूप प्रस्तुत किया। रघुवीर सहाय ने भी पहिये और सिनेमा की रील के उपमानों को ग्रहण किया है। केसरी कुमार ने व्यवसायिक जीवन के उपमानों का प्रयोग किया है। इसी प्रकार चिकित्सा तथा रसायन-शास्त्र से अनेकों उपमा

प्रयोगवाद

प्रयोग शब्द का सामान्य अर्थ है, 'नई दिशा में अन्वेषण का प्रयास'। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रयोग निरंतर चलते रहते हैं। काव्य के क्षेत्र में भी पूर्ववर्ती युग की प्रतिक्रिया स्वरूप या नवीन युग-सापेक्ष चेतना की अभिव्यक्ति हेतु प्रयोग होते रहे हैं। सभी जागरूक कवियों में रूढ़ियों को तोड़कर या सृजित पथ को छोड़ कर नवीन पगडंडियों पर चलने की प्रवृत्ति न्यूनाधिक मात्रा में दिखाई पड़ती है। चाहे यह पगडंडी राजपथ का रूप ग्रहण न कर सके। सन् 1943 या इससे भी पांच-छ: वर्ष पूर्व हिंदी कविता में प्रयोगवादी कही जाने वाली कविता की पग-ध्वनि सुनाई देने लगी थी। कुछ लोगों का मानना है कि 1939 में नरोत्तम नागर के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका 'उच्छृंखल' में इस प्रकार की कविताएं छपने लगी थी जिसमें 'अस्वीकार','आत्यंतिक विच्छेद' और व्यापक 'मूर्ति-भंजन' का स्वर मुखर था तो कुछ लोग निराला की 'नये पत्ते', 'बेला'  और 'कुकुरमुत्ता' में इस नवीन काव्य-धारा के लक्षण देखते हैं। लेकिन 1943 में अज्ञेय के संपादन में 'तार-सप्तक' के प्रकाशन से प्रयो

प्रगतिवादी कवि और उनकी रचनाएं

प्रगतिवादी कवियों को हम तीन श्रेणियों में रख सकते हैं: एक,वे कवि जो मूल रूप से पूर्ववर्ती काव्यधारा छायावाद से संबद्ध हैं, दूसरे वे जो मूल रूप से प्रगतिवादी कवि हैं और तीसरे वे जिन्होंने प्रगतिवादी कविता से अपनी काव्य-यात्रा शुरु की लेकिन बाद में प्रयोगवादी या नई कविता करने लगे। पहले वर्ग के कवियों में सुमित्रानंदन पंत,सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'(विशुद्ध छायावादी),नरेन्द्र शर्मा,भगवती चरण वर्मा,रामेश्वर शुक्ल 'अंचल',बच्चन की कुछ कविताएं(हालावादी कवि),बालकृष्ण शर्मा 'नवीन',माखन लाल चतुर्वेदी,रामधारी सिंह 'दिनकर',उदयशंकर भट्ट,उपेन्द्रनाथ 'अश्क',जगन्नाथ प्रसाद 'मिलिंद'(राष्ट्रीय काव्य धारा) आदि हैं। जिन्होंने प्रगतिवादी साहित्य में उल्लेखनीय योगदान दिया। मूल रूप से प्रगतिवादी कवियों में केदारनाथ अग्रवाल,रामविलास शर्मा,नागार्जुन,रांगेय राघव,शिवमंगल सिंह 'सुमन',त्रिलोचन का नाम उल्लेखनीय है। गजानन माधव मुक्तिबोध,अज्ञेय,भारत भूषण अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र,नरेश मेहता, शमशेर बहादुर सिंह,धर्मवीर भारती में भी प्रगतिवाद किसी न किसी रूप मे

प्रगतिवादी कविता की प्रवृत्तियां

समाज और समाज से जुड़ी समस्याओं यथा गरीबी , अकाल , स्वाधीनता , किसान-मजदूर , शोषक-शोषित संबंध और इनसे उत्पन्न विसंगतियों पर जितनी व्यापक संवेदनशीलता इस धारा की कविता में है , वह अन्यत्र नहीं मिलती। यह काव्यधारा अपना संबंध एक ओर जहां भारतीय परंपरा से जोड़ती है वहीं दूसरी ओर भावी समाज से भी। वर्तमान के प्रति वह आलोचनात्मक यथार्थवादी दृष्टि अपनाती है। प्रगतिवादी काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियां इस प्रकार हैं:-   1.   सामाजिक यथार्थवाद   : इस काव्यधारा के कवियों ने समाज और उसकी समस्याओं का यथार्थ चित्रण किया है। समाज में व्याप्त सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक,राजनीतिक विषमता के कारण दीन-दरिद्र वर्ग के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि के प्रसारण को इस काव्यधारा के कवियों ने प्रमुख स्थान दिया और मजदूर , कच्चे घर , मटमैले बच्चों को अपने काव्य का विषय चुना।   सड़े घूर की गोबर की बदबू से दबकर महक जिंदगी के गुलाब की मर जाती है                  ...केदारनाथ अग्रवाल  ***** ओ मजदूर! ओ मजदूर!! तू सब चीजों का कर्त्ता , तू हीं सब चीजों से दूर ओ मजदूर! ओ मजदूर!!  ***** श्वानों को

प्रगतिवाद

जिस प्रकार द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता,उपदेशात्मकता और स्थूलता के प्रति विद्रोह में छायावाद का जन्म हुआ,उसी प्रकार छायावाद की सूक्ष्मता,कल्पनात्मकता, व्यक्तिवादिता और समाज-विमुखता की प्रतिक्रिया में एक नई साहित्यिक काव्य धारा का जन्म हुआ। इस धारा ने कविता को कल्पना-लोक से निकाल कर जीवन के वास्तविक धरातल पर खड़ा करने का प्रयत्न किया। जीवन का यथार्थ और वस्तुवादी दृष्टिकोण इस कविता का आधार बना। मनुष्य की वास्तविक समस्याओं का चित्रण इस काव्य-धारा का विषय बना। यह धारा साहित्य में 'प्रगतिवाद' के नाम से प्रतिष्ठित हुई।  'प्रगति' का सामान्य अर्थ है- 'आगे बढ़ना' और 'वाद' का अर्थ है-'सिद्धांत'। इस प्रकार प्रगतिवाद का सामान्य अर्थ है 'आगे बढ़ने का सिद्धांत'। लेकिन प्रगतिवाद में इस आगे बढ़ने का एक विशेष ढंग है,विशेष दिशा है जो उसे विशिष्ट परिभाषा देता है। इस अर्थ में 'प्राचीन से नवीन की ओर', 'आदर्श से यथार्थ की ओर','पूंजीवाद से समाजवाद' की ओर,'रूढ़ियों से स्वच्छंद जीवन की ओर','उच्चवर्ग से निम्नवर्ग की ओर&

छायावादी युग में ब्रज भाषा का काव्य

छायावादी युग में कवियों का एक वर्ग ऐसा भी था जो सूर,तुलसी,सेनापति,बिहारी और घनानंद जैसी समर्थ प्रतिभा संपन्न काव्य-धारा को जीवित रखने के लिए ब्रज-भाषा में काव्य रचना कर रहे थे। भारतेंदु युग में जहां ब्रज भाषा का काव्य प्रचुर-मात्रा में लिखा गया वहीं छायावाद आते-आते ब्रज-भाषा में गौण रूप से काव्य रचना लिखी जाती रही। इन कवियों का मत था कि ब्रज-भाषा में काव्य की लंबी परम्परा ने उसे काव्य के अनुकूल बना दिया है। छायावादी युग में ब्रज भाषा में काव्य रचना करने वाले कवियों में रामनाथ जोतिसी,रामचंद्र शुक्ल,राय कृष्णदास,जगदंबाप्रसाद मिश्र 'हितैषी',दुलारे लाल भार्गव,वियोगी हरि,बालकृष्ण शर्मा 'नवीन',अनूप शर्मा,रामेश्वर 'करुण',किशोरीदास वाजपेयी,उमाशंकर वाजपेयी 'उमेश' प्रमुख हैं। रामनाथ जोतिसी(1874-.......) की रचनाओं में 'रामचंद्रोदय' मुख्य है। इसमें रामकथा को युग के अनुरूप प्रस्तुत किया गया है। इस काव्य पर केशव की 'रामचंद्रिका' का प्रभाव लक्षित होता है।विभिन्न छंदों का सफल प्रयोग हुआ है।  रामचंद्र शुक्ल(1884-1940) जो मूलत: आलोचक थे, ने '