रीति काव्य के गुण-दोष

हिंदी में रीति-काव्य का आधार संस्कृत के लक्षण-ग्रंथ हैं । संस्कृत में कवि और आचार्य, दो अलग-अलग व्यक्ति होते थे, किंतु हिंदी में यह भेद मिट गया । प्रत्येक कवि आचार्य बनने की कोशिश करने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ कि वे सफल आचार्य तो बन नहीं पाए,उनके कवित्व पर भी कहीं-कहीं दाग लग गए । इन रीति-ग्रंथकारों में मौलिकता का सर्वथा अभाव रहा । परिणामस्वरूप उनका शास्त्रीय विवेचन सुचारू रूप से नहीं हो सका । 

काव्यांगों का विवेचन करते हुए हिंदी के आचार्यों ने काव्य के सब अंगों का समान विवेचन नहीं किया । शब्द-शक्ति की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया । रस में भी केवल श्रृंगार को ही प्रधानता दी गई । 

लक्षण पद्य में देने की परम्परा के कारण इन कवियों के लक्षण अस्पष्ट और कहीं-कहीं अपूर्ण रह गए हैं । 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का निष्कर्ष द्रष्टव्य है - "हिंदी में लक्षण-ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले सैकड़ों कवि हुए हैं, वे आचार्य की कोटि में नहीं आ सकते । वे वास्तव में कवि ही थे ।"

लक्षण ग्रंथों की दृष्टि से कुछ त्रुटियाँ होते हुए भी इन ग्रंथों का कवित्व की दृष्टि से बहुत महत्त्व है । अलंकारों अथवा रसों के उदाहरण के लिए जो पद्य उपस्थित किए गए हैं, वे अत्यंत सरस और रोचक हैं । श्रृंगार रस के जितने उदाहरण अकेले रीतिकाल में लिखे गए हैं, उतने सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में भी उपलब्ध नहीं होते । 

इनकी कविता में भावों की कोमलता, कल्पना की उड़ान और भाषा की मधुरता का सुंदर समन्वय हुआ है । 

टिप्पणियाँ

  1. आपकी पोस्ट सही कहती है ..रीति काल में जितने भी आचार्य कवि हुए हैं सबका ध्यान सिर्फ श्रृंगार की तरफ गया है ...बाकी संस्कृत के काव्य शास्त्र का पिष्टपेषण हुआ है ,,,शुक्रिया इस विश्लेष्णात्मक पोस्ट के लिए ...

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