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रीति ग्रंथकार कवि और उनकी रचनाएँ

संस्कृत में काव्यांग निरूपण शास्त्रज्ञ आचार्य करते थे, कवि नहीं । वे काव्यविवेचन के दौरान प्रसिद्ध कवियों की रचनाओं को उद्धृत करके अपनी बात समझाते थे । लेकिन रीतिकाल में रीति ग्रंथ लिखने वाले या काव्य पर विचार करने वाले आचार्य नहीं ,मूलत: कवि ही थे । इसलिए उन्होंने नायकों,नायिकाओं,रसों,अलंकारों,छंदों के विवेचन पर कम, इनके दिए गए लक्षणों के उदाहरणों के रूप में रचनाओं पर ज्यादा ध्यान दिया । उन्होंने अन्य कवियों की रचनाओं के उदाहरण नहीं दिए बल्कि स्वयं काव्य रचा । इसलिए इस काल के रीति ग्रंथाकार आचार्य और कवि दोनों एक ही होने लगे । लेकिन इस संदर्भ में यह स्मरण रखना चाहिए कि ये दोनों कार्य , कवि-कर्म और आचार्य कर्म परस्पर विरोधी हैं । कवि के लिए भावप्रवण हृदय चाहिए वहीं आचार्य कर्म की सफलता के लिए प्रौढ़-मस्तिष्क और सर्वांग-पूर्ण संतुलित विवेचन शक्ति की अपेक्षा हुआ करती है । रीतियुगीन रीति-ग्रंथाकार पहले कवि है, आचार्य कर्म तो उसे परम्परावश और राजदरबार में रीतिशास्त्र के ज्ञान की अनिवार्यतावश अपनाना पड़ा । इस युग के प्रमुख रीतिग्रंथकार कवि और उनकी रचनाओं का विवरण हम नीचे दे रहे हैं :    क

रीतिकाल : सामान्य परिचय

हिंदी साहित्य में सम्वत् 1700 से 1900 (वर्ष 1643ई. से 1843 ई. तक) का समय रीतिकाल के नाम से जाना जाता है । भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का पूर्व मध्यकाल और रीतिकाल को उत्तर-मध्य काल भी कहा जाता है । भक्ति काल और रीति काल दोनों के काल को हिंदी साहित्य का मध्यकाल कहा जा सकता है । रीति का अर्थ है : पद्धति । रस, अलंकार, गुण, ध्वनि और नायिका भेद आदि काव्यांगों के विवेचन करते हुए, इनके लक्षण बताते हुए रचे गए काव्य की प्रधानता के कारण इस काल को रीतिकाल कहा गया । रीतिग्रंथों, रीतिकाव्यों तथा अन्य प्रवृत्तियों के कवियों की रचनाओं में भी श्रृंगार रस की प्रधानता के कारण इस काल को श्रृंगारकाल भी कहा जाता है । इसके अतिरिक्त इस काल को अलंकार काल और कला काल की संज्ञाएँ भी दी गई, लेकिन रीतिकाल नाम ही सर्वाधिक सार्थक और प्रचलित नाम है । रीतिकाल के प्रवर्त्तक कवियों में केशवदास और चिंतामणि का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । लेकिन सर्वामान्य रूप से केशवदास को ही रीतिकाल का प्रवर्त्तक कवि माना गया है । रीतिकाल के कवियों को मुख्यत: तीन वर्गों में रखा गया है :- 1. रीतिग्रंथकार कवि या लक्षण बद्ध कवि या रीतिब

भक्तिकाल की राजनैतिक व सामाजिक परिस्थितियाँ

राजनैतिक परिस्थितियाँ भक्ति काल का समय संवत् 1400 (सन 1343) से संवत् 1700 (सन 1643) तक माना गया है । यह दौर युद्ध, संघर्ष और अशांति का समय है । मुहम्मद बिन तुगलक से लेकर शाहजहाँ तक का शासन काल इस सीमा में आता है । इस अवधि में तीन प्रमुख मुस्लिम वंशों-पठान, लोदी और मुगल का साम्राज्य रहा । छोटे-छोटे राज्यों को हड़पने और साम्राज्य विस्तार की अभिलाषा ने युद्धों को जन्म दिया । इस राज्य संघर्ष परम्परा का आरम्भ सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक से शुरु हुआ । तुगलक के बाद सुलतान मुहम्मद शाह गद्दी पर बैठा । सन 1412 में उसकी मृत्यु के साथ तुगलक वंश समाप्त हुआ । इसके बाद लोदी वंश के बादशाहों ने साम्राज्यवाद को बढ़ावा दिया । अंतिम बादशाह इब्राहिम लोदी था, जिसका अंत सन् 1526 में हुआ । इसके बाद मुगल वंश का शासन आरंभ हुआ । जिसमें क्रमश: बाबर,हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर तथा शाहजहाँ ने राज्य किया ।  मुगलवंशीय बादशाह यद्यपि काव्य और कला प्रेमी थे, किंतु निरंतर युद्धों, अव्यवस्थित शासन-व्यवस्था और पारिवारिक कलहों से देश में अशांति ही रही । मुगलवंशीय शासकों में अकबर का राज्य सभी दृष्टियों से सर्वोपरि और व्यवस्थित रह