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छायावाद की प्रवृत्तियां

छायावादी काव्य का विश्लेषण करने पर हम उसमें निम्नांकित प्रवृत्तियां पाते हैं :- 1. वैयक्तिकता : छायावादी काव्य में वैयक्तिकता का प्राधान्य है। कविता वैयक्तिक चिंतन और अनुभूति की परिधि में सीमित होने के कारण अंतर्मुखी हो गई, कवि के अहम् भाव में निबद्ध हो गई। कवियों ने काव्य में अपने सुख-दु:ख,उतार-चढ़ाव,आशा-निराशा की अभिव्यक्ति खुल कर की। उसने समग्र वस्तुजगत को अपनी भावनाओं में रंग कर देखा। जयशंकर प्रसाद का'आंसू' तथा सुमित्रा नंदन पंत के 'उच्छवास' और 'आंसू' व्यक्तिवादी अभिव्यक्ति के सुंदर निदर्शन हैं। इसके व्यक्तिवाद के स्व में सर्व सन्निहित है।डॉ. शिवदान सिंह चौहान इस संबंध में अत्यंत मार्मिक शब्दों में लिखते हैं -''कवि का मैं प्रत्येक प्रबुद्ध भारतवासी का मैं था,इस कारण कवि ने विषयगत दृष्टि से अपनी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए जो लाक्षणिक भाषा और अप्रस्तुत रचना शैली अपनाई,उसके संकेत और प्रतीक हर व्यक्ति के लिए सहज प्रेषणीय बन सके।''छायावादी कवियों की भावनाएं यदि उनके विशिष्ट वैयक्तिक दु:खों के रोने-धोने तक ही सीमित रहती,उ

छायावादी युग के कवि और उनकी रचनाएं

छायावाद के प्रमुख कवि हैं- सर्वश्री जयशंकर प्रसाद,सुमित्रानंदन पंत,सूर्यकांत त्रिपाठी'निराला' तथा महादेवी वर्मा। अन्य कवियों में डॉ.रामकुमार वर्मा, हरिकृष्ण'प्रेमी', जानकी वल्लभ शास्त्री, भगवतीचरण वर्मा,      उदयशंकर भट्ट,नरेन्द्र शर्मा,रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के नाम उल्लेखनीय हैं। इनकी रचनाएं निम्नानुसार हैं :- 1. जय शंकर प्रसाद (1889-1936 ई.) के काव्य संग्रह : 1.चित्राधार(ब्रज भाषा में रचित कविताएं); 2.कानन-कुसुम; 3. महाराणा का महत्त्व; 4.करुणालय; 5.झरना ;6.आंसू; 7.लहर; 8.कामायनी। 2. सुमित्रानंदन पंत (1900-1977ई.) के काव्य संग्रह : 1.वीणा; 2.ग्रन्थि;3.पल्लव; 4.गुंजन ;5. युगान्त ;6. युगवाणी; 7.ग्राम्या;8.स्वर्ण-किरण; 9. स्वर्ण-धूलि;10. युगान्तर; 11.उत्तरा ;12. रजत-शिखर; 13.शिल्पी; 14.प्रतिमा; 15.सौवर्ण; 16.वाणी ;17.चिदंबर; 18.रश्मिबंध; 19.कला और बूढ़ा चांद; 20.अभिषेकित; 21.हरीश सुरी सुनहरी टेर; 22. लोकायतन; 23.किरण वीणा । 3. सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'(1898-1961ई.)के काव्य-संग्रह : 1.अनामिका ;2. परिमल; 3.गीतिका ;4.तुलसीदास; 5. आराधना;6.कुकुर

छायावाद क्या है?

द्विवेदी युग के पश्चात हिंदी साहित्य में जो कविता-धारा प्रवाहित हुई, वह छायावादी कविता के नाम से प्रसिद्ध हुई। छायावाद की कालावधि सन् 1917 से 1936 तक मानी गई है। वस्तुत: इस कालावधि में छायावाद इतनी प्रमुख प्रवृत्ति रही है कि सभी कवि इससे प्रभावित हुए और इसके नाम पर ही इस युग को छायावादी युग कहा जाने लगा। छायावाद क्या है? छायावाद के स्वरूप को समझने के लिए उस पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है,जिसने उसे जन्म दिया। साहित्य के क्षेत्र में प्राय: एक नियम देखा जाता है कि पूर्ववर्ती युग के अभावों को दूर करने के लिए परवर्ती युग का जन्म होता है। छायावाद के मूल में भी यही नियम काम कर रहा है। इससे पूर्व द्विवेदी युग में हिंदी कविता कोरी उपदेश मात्र बन गई थी। उसमें समाज सुधार की चर्चा व्यापक रूप से की जाती थी और कुछ आख्यानों का वर्णन किया जाता था। उपदेशात्मकता और नैतिकता की प्रधानता के कारण कविता में नीरसता आ गई। कवि का हृदय उस निरसता से ऊब गया और कविता में सरसता लाने के लिए वह छटपटा उठा। इसके लिए उसने प्रकृति को माध्यम बनाया। प्रकृति के माध्यम से जब मानव-भावनाओं का चित्रण होने लगा,तभी छायावा

द्विवेदी युग की प्रवृत्तियाँ

पिछली पोस्ट में हमने द्विवेदी युग की प्रस्तावना को जाना। इस पोस्ट में हम द्विवेदी युग की प्रवृत्तियों पर चर्चा करेंगे:- 1. राष्ट्रीय-भावना या राष्ट्र-प्रेम - इस समय भारत की राजनीति में एक महान परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयत्न तेज और बलवान हो गए। भारतेंदु युग में जागृत राष्ट्रीय चेतना क्रियात्मक रूप धारण करने लगी। उसका व्यापक प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा और कवि समाज राष्ट्र-प्रेम का वैतालिक बनकर राष्ट्र-प्रेम के गीत गाने लगा। जय जय प्यारा भारत देश     ... श्रीधर पाठक  संदेश नहीं मैं यहां स्वर्ग लाया इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया ...  मैथिलीशरण गुप्त लोक-प्रचलित पौराणिक आख्यानों,इतिहास वृत्तों और देश की राजनीतिक घटनाओं में इन्होंने अपने काव्य की विषय वस्तु को सजाया।इन आख्यानों,वृत्तों और घटनाओं के चयन में उपेक्षितों के प्रति सहानुभूति,देशानुराग और सत्ता के प्रति विद्रोह का स्वर मुखर है। 2.   रुढ़ि-विद्रोह - पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव एवं जन जागृति के कारण इस काल के कवि में बौद्धिक जागरण हुआ और वह सास्कृतिक भावनाओं के मूल सिद्धांतों को प्रकाशित क