भूमिका

आचार्य रामचद्र शुक्ल मानते हैं कि साहित्य जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है । चित्तवृत्ति बदलती रहती है । फलत: साहित्य का स्वरूप भी बदलता रहता है । प्रारम्भ से अब तक समाज की इस बदलती चित्तवृत्ति की परम्परा को गुण-दोष के आधार पर साहित्य की परम्परा के साथ उसकी उपयुक्तता दर्शाना ही हिंदी साहित्य का इतिहास है ।

इस ब्लॉग के द्वारा हम विभिन्न युगों में हिंदी साहित्य की प्रवृत्तियों में जो परिवर्तन और प्रयोग हुए उनका क्रमबद्ध किंतु बूंद-बूंद लेखा-जोखा प्रस्तुत करेंगे । यह केवल हिंदी साहित्य की रूपरेखा मात्र होगी ।

इस यात्रा में आप सभी सहभागी बन सकते हैं; अपनी सार्थक टिप्पणियों द्वारा ।

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