नई कविता की प्रवृत्तियां
प्रयोगवाद और नई कविता की प्रवृत्तियों में कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता। नई कविता प्रयोगवाद की नींव पर ही खड़ी है। फिर भी कथ्य की व्यापकता और दृष्टि की उन्मुक्तता,ईमानदार अनुभूति का आग्रह,सामाजिक एवं व्यक्ति पक्ष का संश्लेष,रोमांटिक भावबोध से हटकर नवीन आधुनिकता से संपन्न भाव-बोध एक नए शिल्प को गढ़ता है। वादमुक्त काव्य,स्वाधीन चिंतन की व्यापक स्तर पर प्रतिष्ठा,क्षण की अनुभूतियों का चित्रण,काव्य मुक्ति, गद्य का काव्यात्मक उपयोग,नए सौंदर्यबोध की अभिव्यक्ति,अनुभूतियों में घनत्व और तीव्रता,राजनीतिक स्थितियों पर व्यंग्य,नए प्रतीकों-बिम्बों-मिथकों के माध्यम से तथा आदर्शवाद से हटकर नए मनुष्य की नई मानववादी वैचारिक भूमि की प्रतिष्ठा नई कविता की विशेषताएं रहीं हैं। अब इन विशेषताओं पर एक चर्चा-
1.अनुभूति की सच्चाई तथा यथार्थ बोध:-अनुभूति क्षण की हो या समूचे काल की,किसी सामान्य व्यक्ति (लघुमानव)की हो या विशिष्ट पुरुष की,आशा की हो या निराशा की वह सब कविता का कथ्य है। समाज की अनुभूति कवि की अनुभूति बन कर ही कविता में व्यक्त हो सकती है। नई कविता इस वास्तविकता को स्वीकार करती है और ईमानदारी से उसकी अभिव्यक्ति करती है। इसमें मानव को उसके समस्त सुख-दुखों,विसंगतियों और विडंबनाओं को उसके परिवेश सहित स्वीकार किया गया है। इसमें न तो छायावाद की तरह समाज से पलायन है और न ही प्रयोगवाद की तरह मनोग्रंथियों का नग्न वैयक्तिक चित्रण या घोर व्यक्तिनिष्ठ अहंभावना। यह कविता ईमानदारी के साथ व्यक्ति की क्षणिक अनुभूतियों को,उसके दर्द को संवेदनापूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करती है:-
आज फिर शुरु हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी सी सरस सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा
जी भर कर शीतल जल से स्नान किया
आज एक छोटी सी बच्ची आयी
किलक मेरे कंधे पर चढ़ी
आज आदि से अंत तक एक पूरा गान किया
आज जीवन फिर शुरु हुआ
--रघुवीर सहाय
चेहरे थे असंख्य
आंखें थीं
दर्द सभी में था
जीवन का दंश सभी ने जाना था
पर दो
केवल दो
मेरे मन में कौंध गयीं
मैं नहीं जानता किसकी वे आंखे थी
नहीं समझता फिर उनको देखूंगा
परिचय मन ही मन चाहा तो उद्यम कोई नहीं किया
किंतु उसी की कौंध
मुझे फिर फिर दिखलाती है
.
.
वही परिचित दो आंखें ही
चिर माध्यम हैं
सब आंखों से सब दर्दों से
मेरे चिर परिचय का
--अज्ञेय
2.कथ्य की व्यापकता और दृष्टि की उन्मुक्तता: नई कविता में जीवन के प्रति आस्था है। जीवन को इसके पूर्ण रूप में स्वीकार करके उसे भोगने की लालसा है। नई कविता ने जीवन को जीवन के रूप में देखा,इसमें कोई सीमा रेखा निर्धारित नहीं की। नई कविता किसी वाद में बंध कर नहीं चलती। इसलिए अपने कथ्य और दृष्टि में विस्तार पाती है।नई कविता का धरातल पूर्ववर्ती काव्य-धाराओं से व्यापक है,इसलिए उसमें विषयों की विविधता है। एक अर्थ में वह पुराने मूल्यों और प्रतिमानों के प्रति विद्रोही प्रतीत होती है और इनसे बाहर निकलने के लिए व्याकुल रहती है। नई कविता ने धर्म,दर्शन,नीति,आचार सभी प्रकार के मूल्यों को चुनौती दी है,यदि ये मात्र फारमुलें हैं,मात्र ओढ़े हुए हैं और जीवन की नवीन अनुभूति,नवीन चिंतन,नवीन गति के मार्ग में आते हैं। इन मान्य फारमूलों को,मूल्यों की विघातक असंगतियों को अनावृत करना सर्जनात्मकता से असंबद्ध नहीं है,वरन् सर्जन की आकुलता ही है। नई कविता के कवियों में से अधिकांश प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के खेमों में रह चुके थे। प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की अपेक्षा अधिक व्यापक मानवीय संदर्भ,उसकी समस्याएं और विज्ञान के नए आयाम से जुड़ कर नई कविता ने अपना विषय विस्तार किया। आम आदमी जिस पीड़ा को झेलता है,औसत आदमी(मध्य-वर्गीय) जिस जीवन को जीता है,वही लघु मानव इस कविता का नायक बनता है। उसे इतिहास ने अब तक अपने से अलग ही रखा है। इसलिए नई कविता उसकी पीड़ा,अभाव और तनाव झेलती है:
तुम हमारा जिक्र इतिहासों में नहीं पाओगे
और न उस कराह का
जो तुम ने उस रात सुनी
क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरुद्ध दे दिया है
मनुष्य के भीतर मानवता का अंश शहर-दंश से कैसे नष्ट हो जाता है और वह स्वार्थ के संकीर्ण संसार में जीवित रहने के लिए कैसे विवश कर दिया जाता है; अज्ञेय ने इसी पीड़ा को कविता में यूं ब्यां किया है-
बड़े शहर के ढंग और हैं,हम गोटें हैं यहां
दाँव गहरे हैं उस चोपड़ के
श्रीकांत वर्मा के शब्दों में शहरी जिंदगी का सच -
चिमनियों की गंध में डूबा शहर
शाम थककर आ रही है कारखानों में
3. मानवतावाद की नई परिभाषा: नई कविता मानवतावादी है,पर इसका मानवतावाद मिथ्या आदर्श की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है। उसकी यथार्थ दृष्टि मनुष्य को उसके पूरे परिवेश में समझने का बौद्धिक प्रयास करती है। उसकी उलझी हुई संवेदना चेतना के विभिन्न स्तरों तक अनुभूत परिवेश की व्याख्या करने की कोशिश करती है। नई कविता मनुष्य को किसी कल्पित सुंदरता और मूल्यों के आधार पर नहीं,बल्कि उसके तड़पते दर्दों और संवेदनाओं के आधार पर बड़ा सिद्ध करती है। यही उसकी लोक संपृक्ति है। अज्ञेय की एक कविता-
अच्छा
खंडित सत्य
सुघर नीरन्ध्र मृषा से
अच्छा
पीड़ित प्यार
अकंपित निर्ममता से
अच्छी कुंठा रहित इकाई
सांचे ढले समाज से
अच्छा
अपना ठाठ फकीरी
मंगनी के सुख साज से
अच्छा सार्थक मौन
व्यर्थ के श्रवण मधुर छंद से
अच्छा
निर्धन दानी का उघड़ा उर्वर दु:ख
धनी सूम के बंजर धुआं घुटे आनंद से
अच्छे
अनुभव की भट्ठी में तपे हुए कण, दो कण
अंतर्दृष्टि के
झूठे नुस्खे रूढ़ि उपलब्धि परायी के प्रकाश से
रूप शिव रूप सत्य सृष्टि के
(अरी ओ करुणा प्रभामय)
4. कुंठाओं और वर्जनाओं से मुक्ति का संदेश: नई कविता स्वयं को किसी विषय से अछूता नहीं समझती। नई कविता समाज की वर्जनाओं और व्यक्ति की कुंठाओं से निकल कर स्पष्ट और कोमल अनुभूतियों को यथार्थ की कसौटी पर कस कर अभिव्यक्ति देती है। उसमें यदि आदर्श के प्रति लगाव नहीं है तो अनुभूति के प्रति ईमानदारी में भी कोई कपट नहीं है। नए कवियों ने आवाज उठाई कि हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन।कम से कम वाली बात हम से न कहिए। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास में एक मार्के की बात कही कि नई कविता इस सारे के सारे जीवन और गरबीली गरीबी का काव्य है। जिसमें व्यक्ति की चेतना जीवन के सारे व्यापारों में,खेत-खलिहान में,नगर-गांव में व्यापक धरातल पर व्यक्ति की अनुभूतियों को स्वर देती है। मर्यादा और आस्था इस साधारण व्यक्ति के लिए कोई मायने नहीं रखते-
ज्ञान और मर्यादा
उसका क्या करें हम
उनको क्या पीसेंगे?
या उनको खाएंगे?
या उनको ओढ़ेगे?
या उनको बिछाएंगे?
5.विवेक और विचार की कविता: नई कविता में केवल भाव-बोध की अंधी श्रद्धा नहीं है बल्कि उसमें तर्क बुद्धि,विवेक और विचार है। डॉ.लक्ष्मीकांत वर्मा के शब्दों में -उसकी प्रकृति है प्रत्येक सत्य को विवेक से देखना,उसके परिप्रेक्ष्य में प्रयोग के माध्यम से निष्कर्ष तक पहुंचना। बाह्य स्थितियों के प्रति सतर्क और सचेत होकर कवि मानसिक विश्लेषण की ओर बढ़ता है--
मैं खुद को कुरेद रहा था
अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को
सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे
इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर
जमी हुई काई और उगी हुई घास को
खरोंच रहा था,नोच रहा था
6. विसंगतियों का बोध : नई कविता मानव-नियति को लेकर उसकी विसंगतियों के प्रति जागरुक रहती है। भारतीय राजनीति में निरंतर जो विसंगतियां उभरी हैं,सामाजिक और आर्थिक धरातल पर जो विरोधाभास आया है,उसे यह कविता मोह भंग की स्थिति में उजागर करती है। यही कारण है इसमें आक्रोश,नाराजगी,घृणा
और विद्रोह उभर आता है। आक्रोश के साथ निषेध के तेवर भी इसमें देखे गए हैं:-
आदमी को तोड़ती नहीं हैं
लोकतांत्रिक पद्धतियां
केवल पेट के बल
उसे झुका देती हैं धीरे-धीरे अपाहिज
धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए
उसे शिष्ट राजभक्त देश-प्रेमी नागरिक
बना लेती हैं
7.द्वंद्व और संघर्ष : नई कविता का आत्मसंघर्ष काव्यात्मक बनावट में सामाजिक बुनियादी मुद्दों को उठाता है। आज की व्यवस्था में और उस व्यवस्था से जुड़े हुए प्रश्नों में कविता संघर्ष का मार्ग ढूंढ़ती है। उसका धरातल भी व्यापक है। यह संघर्ष आत्मीय प्रसंगों में भी उभरता है। उसमें सामाजिक और मानवीय व्यापार,संदर्भ उभरते हैं। ये कविताएं विषमता से जूझती हैं और नया रास्ता सुझाने का प्रयास करती हैं। परिस्थितियों को बदलने और उनसे बाहर निकलने की छटपटाहट इनमें देखी जाती है। वह समस्याओं को पहचानती है--
जब भी मैंने उनसे कहा है कि देश शासन और
राशन....उन्होंने मुझे रोक दिया है
वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर
उंगली रखने से मना करते हैं
8.परिवेश संबंधी सत्यों का प्रकटन:नई कविता ने समग्र जीवन की प्रामाणिक अनुभूतियों को उनके जीवंत परिवेश में व्यक्त किया,विषय या अनुभूति के आभिजात्य और भिन्न-भिन्न दृष्टियों या वादों से बने हुए उनके घेरों को तोड़कर व्यक्ति द्वारा भोगे हुए जीवन के हर छोटे-बड़े सत्य को प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से उभारने में ही कविता की सार्थकता समझी। बदलते हुए संदर्भों में परिवेशगत परिवर्तन केवल नगर के जीवन में ही नहीं आए,बल्कि इस नगरीय यांत्रिकता का दबाव गांव के जीवन पर भी पड़ा। उस ओर भी मूल्यों का विखंडन हुआ और जिंदगी में तनाव बढ़ा। परिवेश के परायेपन से उपजी पीड़ा नास्टेलजिया के रूप में प्रकट हुई। नई सभ्यता ने केवल शहर के आदमी को ही नहीं तोड़ा,बल्कि गांव के आदमी को भी गांव से बेगाना कर दिया--
याद आते घर
गली चौपाल,कुत्ते,मेमने,मुर्गे,कबूतर
नीम तरु पर
सूख कर लटकी हुई कड़वी तुरई की बेल
टूटा चौंतरा
उखड़े ईंट पत्थर
बेधुली पोशाक पहने गांव के भगवान मंदिर
........
आज की शहरी रोजमर्रा जिंदगी की अनुभूतियों को बड़ी सहजता से अभिव्यक्ति नई कविता में मिली है। उन अभिव्यक्तियों को जो पल-पल के अंतर्विरोधों की उपज हैं। ऊपर से रंगीन दिखाई देने वाली शहरी जिंदगी व्यक्ति को कितना विदेह कर देती है और विदेह होकर भी आज का आदमी दर्द से छुटकारा नहीं पाता और वह केवल दर्द बनकर रह जता है,भारत भूषण अग्रवाल की एक कविता देखिए- -
और तब धीरे-धीरे ज्ञान हुआ
भूल से मैं सिर छोड़ आया हूं दफ्तर में
हाथ बस में ही टँगे रह गए
आँखें जरूर फाइलों में ही समा गई
मुँह टेलिफोन से ही चिपटा-सटा होगा
और पैर,हो-न-हो
क्यू में रह गए हैं
तभी तो मैं आज
घर आया हूं विदेह ही
देह हीन जीवन की कल्पना तो
भारतीय परंपरा का सार है
पर उसमें क्या यह थकान भी शामिल है
जो मुझ अंगहीन को दबोचे ही जाती है
9.यथार्थ की पीड़ा का चित्रण : नई कविता वास्तव में व्यक्ति की पीड़ा की कविता है। प्रयोगवादी कविता में जहां व्यक्ति के आंतरिक तनाव और द्वंद्वों को उकेरा गया है वहीं नई कविता में वह व्यापक सामाजिक यथार्थ से जुड़ता है। जिंदगी की मारक स्थितियों को,उसकी ठोस सच्चाइयों को और राजनीतिक सरोकारों को यह कविता भुलाती नहीं है;पर यह न तो उत्तेजना बढ़ाती है और न ही कवि भावुकता का शिकार होता है। अपने अनुभव के सत्य को कवि बाहर के संसार के सत्य से भी जोड़ता है। इससे नई कविता का काव्यानुभव पुरानी कविता के काव्यानुभव से अलग तरह का हो जाता है--
एकाएक मुझे भान होता है जग का
अखबारी दुनिया का फैलाव
फंसाव,घिराव,तनाव है सब ओर
पत्ते न खड़के
सेना ने घेर ली हैं सड़कें
10. व्यंग्य के तेवर : नई कविता ने व्यंग्य के तेवर को अधिक पैना और धारदार बनाया। समस्याओं को समझकर उसने उस पर व्याख्यान करने की अपेक्षा उसे कसे हुए सीधे शब्दों में प्रकट किया। यह व्यंग्य भी विभिन्न रूपों में अभिव्यक्ति पाता है और इसका क्षेत्र भी व्यापक हो जाता है। किसी भी क्षेत्र में हो रहे शोषण फिर चाहे वह राजनीतिक हो या धार्मिक व्यक्ति, अथवा समाज,आदर्श हो या यथार्थ सब पर व्यंग्य की पैनी धार चली है...
बड़े-बड़े आदर्श वाक्यों को
स्वर्णाक्षरों में लिखवाकर
अपने ड्राइंगरूम में सजा दो
उन्हें अपनी
आस्था,श्रद्धा एवं निष्ठा का
अर्घ्य दो
11. नई कविता वादमुक्त कविता : नई कविता किसी वाद से बंधी नहीं है। यह इस कविता की बहुत बड़ी विशेषता है। शायद यही कारण है कि प्रगतिवादियों ने भी नई कविता की धुन में कविता लिखनी शुरु कर दी। रांगेय राघव जैसा प्रगतिशील कवि नई कविता के युग में अपनी काव्य धारा को अक्षुण्ण रखते हुए नई कविता की शब्द योजना में कविता लिखता है...
ठहर जा जालिम महाजन
तनिक तो तू खोल वह मदिरा विघूर्णित आँख अपनी
देख,कहाँ सौ लाया बता सम्पत्ति
कहां से लाया बता साम्राज्य।
12. नारी के प्रति दृष्टिकोण: नारी के प्रति छायावादी कवियों की दृष्टि सम्मानपूर्ण,स्नेह-वात्सल्यपूर्ण एवं श्रद्धापूर्ण थी। प्रसाद,निराला और पंत ने नारी को अत्यधिक आदर और गौरव के साथ स्मरण किया है--नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत पग नख तल में ...आदि पंक्तियों में प्रसाद ने नारी को जो उच्च स्थान दिया,वह इस युग के कवियों ने नहीं दिया। नर नारी के बीच सृष्टि के आरम्भ से चले आ रहे संबंधों पर रघुवीर सहाय की टिप्पणी--
नारी बिचारी है,पुरुष की मारी है
तन से क्षुधित है,मन से मुदित है
लपक झपककर अंत में चित्त है
13. सौंदर्यबोध : नई कविता का सौंदर्य-शास्त्र और उसका सौंदर्य-बोध निश्चय ही अनेक संदर्भों में व्यापक हुआ है। उसमें सच्चाई,टकराव और मोहभंग की स्थिति नई चेतना के रूप में आई है। यह कविता आध्यात्मिक और दार्शनिक विषयों से भी अब परहेज नहीं करती। इसमें फिर से पेड़,पौधे,पक्षी,बच्चे,मां,गांव,शहर,वतन,रोमांस,प्रेम,प्रकृति-चित्रण आदि का समावेश हुआ। इससे अनुभूति को नए पंख लगे और उसने काव्य में नए रूप धरे।
14.भाषा :नई कविता भाषा के क्षेत्र में भी आधुनिक-बोध के साथ बढ़ती है और नई होती है।नया कवि पुरानी भाषा में नई संवेदना को को अभिव्यक्ति के लिए समर्थ नहीं पाता,इसलिए वह भाषा के नए रूप को गढ़ने के लिए तत्पर रहता है:
शब्द अब भी चाहता हूँ
पर वह कि जो जाए वहां जहां होता हुआ
तुम तक पहुंचे
चीज़ों के आर-पार दो अर्थ मिलाकर सिर्फ एक
स्वच्छंद अर्थ दे
नई कविता की इस नई भाषा में गद्यात्मकता के प्रति विशेष लगाव बन गया है। कहीं-कहीं तो कविता गद्य का प्रतिरूप लगती है। अलंकृत भाषा को नई कविता में बहिष्कृत किया गया है। सपाट शब्दों में अभिव्यक्ति से इसमें सपाटबयानी आ गई है तो कहीं खुरदरी हो गई है। कहीं-कहीं तो कविता सिर्फ ब्यौरा बन कर रह गई है। नई कविता के कुछ कवियों ने स्वयं को मौलिक और उत्साही साबित करने के लिए स्थापित मूल्यों को भी अस्वीकार करने में अभिधा शैली से अभिव्यक्ति का दंभ भरा है। अशोक वाजपेयी ने ऐसे कवियों की सतही मुद्रा,फिकरेबाजी,चालू मुहावरेदानी और पैगम्बराना अंदाज को समर्थ कविता के लिए घातक बताया है; उन्ही के शब्दों में-- रचनात्मक स्तर पर भाषा के संस्कार के प्रति,उसकी सांस्कृतिक जड़ों के प्रति,उदासीनता आयी है और पारम्परिक अनुगूंजों और आसंगों से कवियों के अज्ञान और अरुचि के कारण,कट जाने से काव्य भाषा में ज्यादातर युवा कवियों की भाषा में सपाटता,सतहीपन और मानवीय दरिद्रता आयी है। इस संदर्भ में मणि मधुकर की कविता का एक अंश...
श्रद्धा,सम्मान और प्रेरणा जैसे शब्दों को
पान की पीक के साथ थूकता हूं मैं
मंत्रिमंडलों में बलात्कार करनेवाले लोगों पर
मेरे थूक का रंग लाल है,
काश,मेरे खुन का रंग भी लाल होता
यद्यपि नई कविता का शब्द संसार बहुत व्यापक है। इसमें संस्कृत,हिंदी,उर्दू तथा प्रांतीय भाषाओं और बोलियों के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग सामान्य हो गया है। कई जगह नए विशेषणों तथा क्रियापदों का निर्माण किया गया है;जैसे- रंगिम,चंदीले,लम्बायित,उकसती,बिलमान,हरयावल आदि। विज्ञान,धर्म,दर्शन,राजनीति,समाजशास्त्र आदि सभी क्षेत्रों से उसने शब्दों का चयन किया है। आम आदमी के स्वर,चिर-परिचित शब्द आज की कविता में देखे जा सकते हैं। जन भाषा में सूक्तियों,लोकोक्तियों और मुहावरों का का प्रयोग कभी व्यंग्य प्रदर्शन के लिए तो कभी आम आदमी का आक्रोश व्यक्त करने के लिए। लोकगीतों व लोकधुनों के आधार पर भी कविता की रचना की गई। फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नई कविता ने भाषा को अपनी सुविधा के अनुरूप तोड़ा-मरोड़ा है,यह भाषा के साथ खिलवाड़ है।
15. प्रतीक : नई कविता ने नवीन और प्राचीन दोनों तरह के प्रतीक चुनें हैं। परम्परागत प्रतीक नए परिवेश में नए अर्थ के साथ प्रयुक्त हुए हैं। नए प्रतीकों में भेड़,भेड़िया,अजगर जैसे शब्दों को जनता,सत्ताधारी वर्ग,व्यवस्था आदि के प्रतीक रूप में प्रयोग किया गया है। पृथ्वी,पहाड़,सूरज,चांद,किरण,सायं,कमल आदि परम्परागत अर्थ से हट कर नए अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं। मुक्तिबोध के प्रतीक वैज्ञानिक जीवन से लेकर आध्यात्मिक क्षेत्र तक फैलें हैं। ओरांग-उटांग तथा ब्रह्मराक्षस जैसे प्रतीक बहुत ही सटीक और समर्थ हैं। पीपल का वृक्ष भी उनका विशेष प्रिय प्रतीक रहा। मौसम शब्द भी प्रतीक बन कर वर्तमान परिवेश को अर्थ देता है--
छिनाल मौसम की मुर्दार गुटरगूं
16.बिंब : नई कविता में बिंब कविता की मूल छवि बन गए हैं, अपनी अंतर्लयता के लिए इसमें बिंबबहुलता हो गई है। कवियों ने इन बिंबों को जीवन के बीच से चुना है।व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों तरह के बिंब इस कविता में हैं। पौराणिक और ऐसतिहासिक बिंब नए अर्थ और संदर्भ में लोक-संपृक्ति के साथ उदित हुए हैं। शहरी कवि के बिंब विशेषतया नागरिक जीवन के और ग्रामीण जीवन के संस्कारों से युक्त कवि के बिंब विशेषतया गांव के होते हैं। जीवन के नए संदर्भों में उभरने वाले वाली अनुभूतियों,सौंदर्य-प्रतीतियों और चिंतन आयामों से संपृक्त बिंब नई कविता ग्रहण करती है...
शाखों पर जमे धूप के फाहे
गिरते पत्तों से पल ऊब गये
हकाँ दी खुलेपन ने फिर मुझको
लहरों के डाक कहीं डूब गये
---केदारनाथ सिंह
बँधी लीक पर रेलें लादे माल
चिहुँकती और रंभाती अफराये
डागर सी
---अज्ञेय
ठिलती-चलती जाती हैं
नदिया में बाढ़ आयी
ढूह सब ढह गये
हरियाये किनारे,सूखे पत्ते सब बह गये
रस में ये डूबे पल
कानों में कह गये
तपने से डरते थे
इसलिए देखो
तुम आज सूखे रह गये
---भारत भूषण अग्रवाल
17. उपमान : नई कविता में जहां अलंकारों का बहिष्कार हुआ,वहीं नए उपमान के प्रयोग से उसका शिल्प नव्य चेतना को यथार्थ अभिव्यक्ति देने में समर्थ हो गया है। लुकमान अली और मोचीराम जैसी लंबी कविताओं के शीर्षक ही उपमान बनकर आते हैं और आदमी की व्यथा का इतिहास प्रकट करते हैं। नई कविता में आटे की खाली कनस्तर जैसी चीजें भी उपमान बनती हैं:
प्यार,इश्क खाते हैं ठोकर
आटे के खाली कनस्तर से
अपने आस-पास फैले हुए वातावरण और वस्तुओं को कवि उपमान बनाकर प्रस्तुत करता है:-
उंगलियों में अहसास दबा है
सिगरेट की तरह
तथा सन्नाटा
लटकी हुई कमरे की कमीज और हैंगर सा
झूल रहा था
18. रस :नई कविता में रस का मूल बिम्बविधान है। नई कविता के सृजेता कवि बिंब विधान में निश्चय ही समर्थ माने जा सकते हैं और उनका यह सामर्थ्य आज बुद्धि समन्वित होकर परम्परा से कटे हुए रस भावों से संयत होकर विशिष्ट एवं यथेष्ट रसों की सृष्टि कर रहा है। कुछ आलोचकों ने इसे बुद्धि रस की सज्ञा प्रदान की है:
पहले लोग सठिया जाते थे
अब कुर्सिया जाते हैं
दोस्त मेरे!
भारत एक कृषि प्रधान नहीं
कुर्सी प्रधान देश है --डॉ. मदनलाल डागा
19. छंद :छंदों के प्रति विद्रोह प्रयोगवाद से ही आरंभ हो गया था और नई कविता ने विद्रोह की इस आग को ठंडा नहीं होने दिया। हिंदी कविता आज मुक्तक छंद को ही अपनाती है। लेकिन इसमें तुकांत के प्रति युवा कवियों में आकर्षण बढ़ा है। छंद के प्रति आग्रह न होने के बावजूद भी नई कविता में प्रवाह और गति दिखाई पड़ती है। नाद सौंदर्य इसमें एक अंत:संगीत उत्पन करता है,अर्थ के धरातल पर इसमें एक अंतर्लयता की गूंज उभरती है। कभी-कभी इन कविताओं में मात्राओं का मेल दिखाई पड़ता है लेकिन इससे इन्हें छंदोबद्ध नहीं माना जा सकता। वस्तुत: नई कविता मुक्तक छंद में नई संवेदना और नए विचार की सटीक अभिव्यंजना की एक कोशिश है।
1.अनुभूति की सच्चाई तथा यथार्थ बोध:-अनुभूति क्षण की हो या समूचे काल की,किसी सामान्य व्यक्ति (लघुमानव)की हो या विशिष्ट पुरुष की,आशा की हो या निराशा की वह सब कविता का कथ्य है। समाज की अनुभूति कवि की अनुभूति बन कर ही कविता में व्यक्त हो सकती है। नई कविता इस वास्तविकता को स्वीकार करती है और ईमानदारी से उसकी अभिव्यक्ति करती है। इसमें मानव को उसके समस्त सुख-दुखों,विसंगतियों और विडंबनाओं को उसके परिवेश सहित स्वीकार किया गया है। इसमें न तो छायावाद की तरह समाज से पलायन है और न ही प्रयोगवाद की तरह मनोग्रंथियों का नग्न वैयक्तिक चित्रण या घोर व्यक्तिनिष्ठ अहंभावना। यह कविता ईमानदारी के साथ व्यक्ति की क्षणिक अनुभूतियों को,उसके दर्द को संवेदनापूर्ण ढंग से अभिव्यक्त करती है:-
आज फिर शुरु हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी सी सरस सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा
जी भर कर शीतल जल से स्नान किया
आज एक छोटी सी बच्ची आयी
किलक मेरे कंधे पर चढ़ी
आज आदि से अंत तक एक पूरा गान किया
आज जीवन फिर शुरु हुआ
--रघुवीर सहाय
चेहरे थे असंख्य
आंखें थीं
दर्द सभी में था
जीवन का दंश सभी ने जाना था
पर दो
केवल दो
मेरे मन में कौंध गयीं
मैं नहीं जानता किसकी वे आंखे थी
नहीं समझता फिर उनको देखूंगा
परिचय मन ही मन चाहा तो उद्यम कोई नहीं किया
किंतु उसी की कौंध
मुझे फिर फिर दिखलाती है
.
.
वही परिचित दो आंखें ही
चिर माध्यम हैं
सब आंखों से सब दर्दों से
मेरे चिर परिचय का
--अज्ञेय
2.कथ्य की व्यापकता और दृष्टि की उन्मुक्तता: नई कविता में जीवन के प्रति आस्था है। जीवन को इसके पूर्ण रूप में स्वीकार करके उसे भोगने की लालसा है। नई कविता ने जीवन को जीवन के रूप में देखा,इसमें कोई सीमा रेखा निर्धारित नहीं की। नई कविता किसी वाद में बंध कर नहीं चलती। इसलिए अपने कथ्य और दृष्टि में विस्तार पाती है।नई कविता का धरातल पूर्ववर्ती काव्य-धाराओं से व्यापक है,इसलिए उसमें विषयों की विविधता है। एक अर्थ में वह पुराने मूल्यों और प्रतिमानों के प्रति विद्रोही प्रतीत होती है और इनसे बाहर निकलने के लिए व्याकुल रहती है। नई कविता ने धर्म,दर्शन,नीति,आचार सभी प्रकार के मूल्यों को चुनौती दी है,यदि ये मात्र फारमुलें हैं,मात्र ओढ़े हुए हैं और जीवन की नवीन अनुभूति,नवीन चिंतन,नवीन गति के मार्ग में आते हैं। इन मान्य फारमूलों को,मूल्यों की विघातक असंगतियों को अनावृत करना सर्जनात्मकता से असंबद्ध नहीं है,वरन् सर्जन की आकुलता ही है। नई कविता के कवियों में से अधिकांश प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के खेमों में रह चुके थे। प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की अपेक्षा अधिक व्यापक मानवीय संदर्भ,उसकी समस्याएं और विज्ञान के नए आयाम से जुड़ कर नई कविता ने अपना विषय विस्तार किया। आम आदमी जिस पीड़ा को झेलता है,औसत आदमी(मध्य-वर्गीय) जिस जीवन को जीता है,वही लघु मानव इस कविता का नायक बनता है। उसे इतिहास ने अब तक अपने से अलग ही रखा है। इसलिए नई कविता उसकी पीड़ा,अभाव और तनाव झेलती है:
तुम हमारा जिक्र इतिहासों में नहीं पाओगे
और न उस कराह का
जो तुम ने उस रात सुनी
क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरुद्ध दे दिया है
मनुष्य के भीतर मानवता का अंश शहर-दंश से कैसे नष्ट हो जाता है और वह स्वार्थ के संकीर्ण संसार में जीवित रहने के लिए कैसे विवश कर दिया जाता है; अज्ञेय ने इसी पीड़ा को कविता में यूं ब्यां किया है-
बड़े शहर के ढंग और हैं,हम गोटें हैं यहां
दाँव गहरे हैं उस चोपड़ के
श्रीकांत वर्मा के शब्दों में शहरी जिंदगी का सच -
चिमनियों की गंध में डूबा शहर
शाम थककर आ रही है कारखानों में
3. मानवतावाद की नई परिभाषा: नई कविता मानवतावादी है,पर इसका मानवतावाद मिथ्या आदर्श की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है। उसकी यथार्थ दृष्टि मनुष्य को उसके पूरे परिवेश में समझने का बौद्धिक प्रयास करती है। उसकी उलझी हुई संवेदना चेतना के विभिन्न स्तरों तक अनुभूत परिवेश की व्याख्या करने की कोशिश करती है। नई कविता मनुष्य को किसी कल्पित सुंदरता और मूल्यों के आधार पर नहीं,बल्कि उसके तड़पते दर्दों और संवेदनाओं के आधार पर बड़ा सिद्ध करती है। यही उसकी लोक संपृक्ति है। अज्ञेय की एक कविता-
अच्छा
खंडित सत्य
सुघर नीरन्ध्र मृषा से
अच्छा
पीड़ित प्यार
अकंपित निर्ममता से
अच्छी कुंठा रहित इकाई
सांचे ढले समाज से
अच्छा
अपना ठाठ फकीरी
मंगनी के सुख साज से
अच्छा सार्थक मौन
व्यर्थ के श्रवण मधुर छंद से
अच्छा
निर्धन दानी का उघड़ा उर्वर दु:ख
धनी सूम के बंजर धुआं घुटे आनंद से
अच्छे
अनुभव की भट्ठी में तपे हुए कण, दो कण
अंतर्दृष्टि के
झूठे नुस्खे रूढ़ि उपलब्धि परायी के प्रकाश से
रूप शिव रूप सत्य सृष्टि के
(अरी ओ करुणा प्रभामय)
4. कुंठाओं और वर्जनाओं से मुक्ति का संदेश: नई कविता स्वयं को किसी विषय से अछूता नहीं समझती। नई कविता समाज की वर्जनाओं और व्यक्ति की कुंठाओं से निकल कर स्पष्ट और कोमल अनुभूतियों को यथार्थ की कसौटी पर कस कर अभिव्यक्ति देती है। उसमें यदि आदर्श के प्रति लगाव नहीं है तो अनुभूति के प्रति ईमानदारी में भी कोई कपट नहीं है। नए कवियों ने आवाज उठाई कि हम तो सारा का सारा लेंगे जीवन।कम से कम वाली बात हम से न कहिए। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास में एक मार्के की बात कही कि नई कविता इस सारे के सारे जीवन और गरबीली गरीबी का काव्य है। जिसमें व्यक्ति की चेतना जीवन के सारे व्यापारों में,खेत-खलिहान में,नगर-गांव में व्यापक धरातल पर व्यक्ति की अनुभूतियों को स्वर देती है। मर्यादा और आस्था इस साधारण व्यक्ति के लिए कोई मायने नहीं रखते-
ज्ञान और मर्यादा
उसका क्या करें हम
उनको क्या पीसेंगे?
या उनको खाएंगे?
या उनको ओढ़ेगे?
या उनको बिछाएंगे?
5.विवेक और विचार की कविता: नई कविता में केवल भाव-बोध की अंधी श्रद्धा नहीं है बल्कि उसमें तर्क बुद्धि,विवेक और विचार है। डॉ.लक्ष्मीकांत वर्मा के शब्दों में -उसकी प्रकृति है प्रत्येक सत्य को विवेक से देखना,उसके परिप्रेक्ष्य में प्रयोग के माध्यम से निष्कर्ष तक पहुंचना। बाह्य स्थितियों के प्रति सतर्क और सचेत होकर कवि मानसिक विश्लेषण की ओर बढ़ता है--
मैं खुद को कुरेद रहा था
अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को
सोच रहा था जो मेरे नजदीक थे
इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर
जमी हुई काई और उगी हुई घास को
खरोंच रहा था,नोच रहा था
6. विसंगतियों का बोध : नई कविता मानव-नियति को लेकर उसकी विसंगतियों के प्रति जागरुक रहती है। भारतीय राजनीति में निरंतर जो विसंगतियां उभरी हैं,सामाजिक और आर्थिक धरातल पर जो विरोधाभास आया है,उसे यह कविता मोह भंग की स्थिति में उजागर करती है। यही कारण है इसमें आक्रोश,नाराजगी,घृणा
और विद्रोह उभर आता है। आक्रोश के साथ निषेध के तेवर भी इसमें देखे गए हैं:-
आदमी को तोड़ती नहीं हैं
लोकतांत्रिक पद्धतियां
केवल पेट के बल
उसे झुका देती हैं धीरे-धीरे अपाहिज
धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए
उसे शिष्ट राजभक्त देश-प्रेमी नागरिक
बना लेती हैं
7.द्वंद्व और संघर्ष : नई कविता का आत्मसंघर्ष काव्यात्मक बनावट में सामाजिक बुनियादी मुद्दों को उठाता है। आज की व्यवस्था में और उस व्यवस्था से जुड़े हुए प्रश्नों में कविता संघर्ष का मार्ग ढूंढ़ती है। उसका धरातल भी व्यापक है। यह संघर्ष आत्मीय प्रसंगों में भी उभरता है। उसमें सामाजिक और मानवीय व्यापार,संदर्भ उभरते हैं। ये कविताएं विषमता से जूझती हैं और नया रास्ता सुझाने का प्रयास करती हैं। परिस्थितियों को बदलने और उनसे बाहर निकलने की छटपटाहट इनमें देखी जाती है। वह समस्याओं को पहचानती है--
जब भी मैंने उनसे कहा है कि देश शासन और
राशन....उन्होंने मुझे रोक दिया है
वे मुझे अपराध के असली मुकाम पर
उंगली रखने से मना करते हैं
8.परिवेश संबंधी सत्यों का प्रकटन:नई कविता ने समग्र जीवन की प्रामाणिक अनुभूतियों को उनके जीवंत परिवेश में व्यक्त किया,विषय या अनुभूति के आभिजात्य और भिन्न-भिन्न दृष्टियों या वादों से बने हुए उनके घेरों को तोड़कर व्यक्ति द्वारा भोगे हुए जीवन के हर छोटे-बड़े सत्य को प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से उभारने में ही कविता की सार्थकता समझी। बदलते हुए संदर्भों में परिवेशगत परिवर्तन केवल नगर के जीवन में ही नहीं आए,बल्कि इस नगरीय यांत्रिकता का दबाव गांव के जीवन पर भी पड़ा। उस ओर भी मूल्यों का विखंडन हुआ और जिंदगी में तनाव बढ़ा। परिवेश के परायेपन से उपजी पीड़ा नास्टेलजिया के रूप में प्रकट हुई। नई सभ्यता ने केवल शहर के आदमी को ही नहीं तोड़ा,बल्कि गांव के आदमी को भी गांव से बेगाना कर दिया--
याद आते घर
गली चौपाल,कुत्ते,मेमने,मुर्गे,कबूतर
नीम तरु पर
सूख कर लटकी हुई कड़वी तुरई की बेल
टूटा चौंतरा
उखड़े ईंट पत्थर
बेधुली पोशाक पहने गांव के भगवान मंदिर
........
आज की शहरी रोजमर्रा जिंदगी की अनुभूतियों को बड़ी सहजता से अभिव्यक्ति नई कविता में मिली है। उन अभिव्यक्तियों को जो पल-पल के अंतर्विरोधों की उपज हैं। ऊपर से रंगीन दिखाई देने वाली शहरी जिंदगी व्यक्ति को कितना विदेह कर देती है और विदेह होकर भी आज का आदमी दर्द से छुटकारा नहीं पाता और वह केवल दर्द बनकर रह जता है,भारत भूषण अग्रवाल की एक कविता देखिए- -
और तब धीरे-धीरे ज्ञान हुआ
भूल से मैं सिर छोड़ आया हूं दफ्तर में
हाथ बस में ही टँगे रह गए
आँखें जरूर फाइलों में ही समा गई
मुँह टेलिफोन से ही चिपटा-सटा होगा
और पैर,हो-न-हो
क्यू में रह गए हैं
तभी तो मैं आज
घर आया हूं विदेह ही
देह हीन जीवन की कल्पना तो
भारतीय परंपरा का सार है
पर उसमें क्या यह थकान भी शामिल है
जो मुझ अंगहीन को दबोचे ही जाती है
9.यथार्थ की पीड़ा का चित्रण : नई कविता वास्तव में व्यक्ति की पीड़ा की कविता है। प्रयोगवादी कविता में जहां व्यक्ति के आंतरिक तनाव और द्वंद्वों को उकेरा गया है वहीं नई कविता में वह व्यापक सामाजिक यथार्थ से जुड़ता है। जिंदगी की मारक स्थितियों को,उसकी ठोस सच्चाइयों को और राजनीतिक सरोकारों को यह कविता भुलाती नहीं है;पर यह न तो उत्तेजना बढ़ाती है और न ही कवि भावुकता का शिकार होता है। अपने अनुभव के सत्य को कवि बाहर के संसार के सत्य से भी जोड़ता है। इससे नई कविता का काव्यानुभव पुरानी कविता के काव्यानुभव से अलग तरह का हो जाता है--
एकाएक मुझे भान होता है जग का
अखबारी दुनिया का फैलाव
फंसाव,घिराव,तनाव है सब ओर
पत्ते न खड़के
सेना ने घेर ली हैं सड़कें
10. व्यंग्य के तेवर : नई कविता ने व्यंग्य के तेवर को अधिक पैना और धारदार बनाया। समस्याओं को समझकर उसने उस पर व्याख्यान करने की अपेक्षा उसे कसे हुए सीधे शब्दों में प्रकट किया। यह व्यंग्य भी विभिन्न रूपों में अभिव्यक्ति पाता है और इसका क्षेत्र भी व्यापक हो जाता है। किसी भी क्षेत्र में हो रहे शोषण फिर चाहे वह राजनीतिक हो या धार्मिक व्यक्ति, अथवा समाज,आदर्श हो या यथार्थ सब पर व्यंग्य की पैनी धार चली है...
बड़े-बड़े आदर्श वाक्यों को
स्वर्णाक्षरों में लिखवाकर
अपने ड्राइंगरूम में सजा दो
उन्हें अपनी
आस्था,श्रद्धा एवं निष्ठा का
अर्घ्य दो
11. नई कविता वादमुक्त कविता : नई कविता किसी वाद से बंधी नहीं है। यह इस कविता की बहुत बड़ी विशेषता है। शायद यही कारण है कि प्रगतिवादियों ने भी नई कविता की धुन में कविता लिखनी शुरु कर दी। रांगेय राघव जैसा प्रगतिशील कवि नई कविता के युग में अपनी काव्य धारा को अक्षुण्ण रखते हुए नई कविता की शब्द योजना में कविता लिखता है...
ठहर जा जालिम महाजन
तनिक तो तू खोल वह मदिरा विघूर्णित आँख अपनी
देख,कहाँ सौ लाया बता सम्पत्ति
कहां से लाया बता साम्राज्य।
12. नारी के प्रति दृष्टिकोण: नारी के प्रति छायावादी कवियों की दृष्टि सम्मानपूर्ण,स्नेह-वात्सल्यपूर्ण एवं श्रद्धापूर्ण थी। प्रसाद,निराला और पंत ने नारी को अत्यधिक आदर और गौरव के साथ स्मरण किया है--नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत पग नख तल में ...आदि पंक्तियों में प्रसाद ने नारी को जो उच्च स्थान दिया,वह इस युग के कवियों ने नहीं दिया। नर नारी के बीच सृष्टि के आरम्भ से चले आ रहे संबंधों पर रघुवीर सहाय की टिप्पणी--
नारी बिचारी है,पुरुष की मारी है
तन से क्षुधित है,मन से मुदित है
लपक झपककर अंत में चित्त है
13. सौंदर्यबोध : नई कविता का सौंदर्य-शास्त्र और उसका सौंदर्य-बोध निश्चय ही अनेक संदर्भों में व्यापक हुआ है। उसमें सच्चाई,टकराव और मोहभंग की स्थिति नई चेतना के रूप में आई है। यह कविता आध्यात्मिक और दार्शनिक विषयों से भी अब परहेज नहीं करती। इसमें फिर से पेड़,पौधे,पक्षी,बच्चे,मां,गांव,शहर,वतन,रोमांस,प्रेम,प्रकृति-चित्रण आदि का समावेश हुआ। इससे अनुभूति को नए पंख लगे और उसने काव्य में नए रूप धरे।
14.भाषा :नई कविता भाषा के क्षेत्र में भी आधुनिक-बोध के साथ बढ़ती है और नई होती है।नया कवि पुरानी भाषा में नई संवेदना को को अभिव्यक्ति के लिए समर्थ नहीं पाता,इसलिए वह भाषा के नए रूप को गढ़ने के लिए तत्पर रहता है:
शब्द अब भी चाहता हूँ
पर वह कि जो जाए वहां जहां होता हुआ
तुम तक पहुंचे
चीज़ों के आर-पार दो अर्थ मिलाकर सिर्फ एक
स्वच्छंद अर्थ दे
नई कविता की इस नई भाषा में गद्यात्मकता के प्रति विशेष लगाव बन गया है। कहीं-कहीं तो कविता गद्य का प्रतिरूप लगती है। अलंकृत भाषा को नई कविता में बहिष्कृत किया गया है। सपाट शब्दों में अभिव्यक्ति से इसमें सपाटबयानी आ गई है तो कहीं खुरदरी हो गई है। कहीं-कहीं तो कविता सिर्फ ब्यौरा बन कर रह गई है। नई कविता के कुछ कवियों ने स्वयं को मौलिक और उत्साही साबित करने के लिए स्थापित मूल्यों को भी अस्वीकार करने में अभिधा शैली से अभिव्यक्ति का दंभ भरा है। अशोक वाजपेयी ने ऐसे कवियों की सतही मुद्रा,फिकरेबाजी,चालू मुहावरेदानी और पैगम्बराना अंदाज को समर्थ कविता के लिए घातक बताया है; उन्ही के शब्दों में-- रचनात्मक स्तर पर भाषा के संस्कार के प्रति,उसकी सांस्कृतिक जड़ों के प्रति,उदासीनता आयी है और पारम्परिक अनुगूंजों और आसंगों से कवियों के अज्ञान और अरुचि के कारण,कट जाने से काव्य भाषा में ज्यादातर युवा कवियों की भाषा में सपाटता,सतहीपन और मानवीय दरिद्रता आयी है। इस संदर्भ में मणि मधुकर की कविता का एक अंश...
श्रद्धा,सम्मान और प्रेरणा जैसे शब्दों को
पान की पीक के साथ थूकता हूं मैं
मंत्रिमंडलों में बलात्कार करनेवाले लोगों पर
मेरे थूक का रंग लाल है,
काश,मेरे खुन का रंग भी लाल होता
यद्यपि नई कविता का शब्द संसार बहुत व्यापक है। इसमें संस्कृत,हिंदी,उर्दू तथा प्रांतीय भाषाओं और बोलियों के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग सामान्य हो गया है। कई जगह नए विशेषणों तथा क्रियापदों का निर्माण किया गया है;जैसे- रंगिम,चंदीले,लम्बायित,उकसती,बिलमान,हरयावल आदि। विज्ञान,धर्म,दर्शन,राजनीति,समाजशास्त्र आदि सभी क्षेत्रों से उसने शब्दों का चयन किया है। आम आदमी के स्वर,चिर-परिचित शब्द आज की कविता में देखे जा सकते हैं। जन भाषा में सूक्तियों,लोकोक्तियों और मुहावरों का का प्रयोग कभी व्यंग्य प्रदर्शन के लिए तो कभी आम आदमी का आक्रोश व्यक्त करने के लिए। लोकगीतों व लोकधुनों के आधार पर भी कविता की रचना की गई। फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नई कविता ने भाषा को अपनी सुविधा के अनुरूप तोड़ा-मरोड़ा है,यह भाषा के साथ खिलवाड़ है।
15. प्रतीक : नई कविता ने नवीन और प्राचीन दोनों तरह के प्रतीक चुनें हैं। परम्परागत प्रतीक नए परिवेश में नए अर्थ के साथ प्रयुक्त हुए हैं। नए प्रतीकों में भेड़,भेड़िया,अजगर जैसे शब्दों को जनता,सत्ताधारी वर्ग,व्यवस्था आदि के प्रतीक रूप में प्रयोग किया गया है। पृथ्वी,पहाड़,सूरज,चांद,किरण,सायं,कमल आदि परम्परागत अर्थ से हट कर नए अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं। मुक्तिबोध के प्रतीक वैज्ञानिक जीवन से लेकर आध्यात्मिक क्षेत्र तक फैलें हैं। ओरांग-उटांग तथा ब्रह्मराक्षस जैसे प्रतीक बहुत ही सटीक और समर्थ हैं। पीपल का वृक्ष भी उनका विशेष प्रिय प्रतीक रहा। मौसम शब्द भी प्रतीक बन कर वर्तमान परिवेश को अर्थ देता है--
छिनाल मौसम की मुर्दार गुटरगूं
16.बिंब : नई कविता में बिंब कविता की मूल छवि बन गए हैं, अपनी अंतर्लयता के लिए इसमें बिंबबहुलता हो गई है। कवियों ने इन बिंबों को जीवन के बीच से चुना है।व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों तरह के बिंब इस कविता में हैं। पौराणिक और ऐसतिहासिक बिंब नए अर्थ और संदर्भ में लोक-संपृक्ति के साथ उदित हुए हैं। शहरी कवि के बिंब विशेषतया नागरिक जीवन के और ग्रामीण जीवन के संस्कारों से युक्त कवि के बिंब विशेषतया गांव के होते हैं। जीवन के नए संदर्भों में उभरने वाले वाली अनुभूतियों,सौंदर्य-प्रतीतियों और चिंतन आयामों से संपृक्त बिंब नई कविता ग्रहण करती है...
शाखों पर जमे धूप के फाहे
गिरते पत्तों से पल ऊब गये
हकाँ दी खुलेपन ने फिर मुझको
लहरों के डाक कहीं डूब गये
---केदारनाथ सिंह
बँधी लीक पर रेलें लादे माल
चिहुँकती और रंभाती अफराये
डागर सी
---अज्ञेय
ठिलती-चलती जाती हैं
नदिया में बाढ़ आयी
ढूह सब ढह गये
हरियाये किनारे,सूखे पत्ते सब बह गये
रस में ये डूबे पल
कानों में कह गये
तपने से डरते थे
इसलिए देखो
तुम आज सूखे रह गये
---भारत भूषण अग्रवाल
17. उपमान : नई कविता में जहां अलंकारों का बहिष्कार हुआ,वहीं नए उपमान के प्रयोग से उसका शिल्प नव्य चेतना को यथार्थ अभिव्यक्ति देने में समर्थ हो गया है। लुकमान अली और मोचीराम जैसी लंबी कविताओं के शीर्षक ही उपमान बनकर आते हैं और आदमी की व्यथा का इतिहास प्रकट करते हैं। नई कविता में आटे की खाली कनस्तर जैसी चीजें भी उपमान बनती हैं:
प्यार,इश्क खाते हैं ठोकर
आटे के खाली कनस्तर से
अपने आस-पास फैले हुए वातावरण और वस्तुओं को कवि उपमान बनाकर प्रस्तुत करता है:-
उंगलियों में अहसास दबा है
सिगरेट की तरह
तथा सन्नाटा
लटकी हुई कमरे की कमीज और हैंगर सा
झूल रहा था
18. रस :नई कविता में रस का मूल बिम्बविधान है। नई कविता के सृजेता कवि बिंब विधान में निश्चय ही समर्थ माने जा सकते हैं और उनका यह सामर्थ्य आज बुद्धि समन्वित होकर परम्परा से कटे हुए रस भावों से संयत होकर विशिष्ट एवं यथेष्ट रसों की सृष्टि कर रहा है। कुछ आलोचकों ने इसे बुद्धि रस की सज्ञा प्रदान की है:
पहले लोग सठिया जाते थे
अब कुर्सिया जाते हैं
दोस्त मेरे!
भारत एक कृषि प्रधान नहीं
कुर्सी प्रधान देश है --डॉ. मदनलाल डागा
19. छंद :छंदों के प्रति विद्रोह प्रयोगवाद से ही आरंभ हो गया था और नई कविता ने विद्रोह की इस आग को ठंडा नहीं होने दिया। हिंदी कविता आज मुक्तक छंद को ही अपनाती है। लेकिन इसमें तुकांत के प्रति युवा कवियों में आकर्षण बढ़ा है। छंद के प्रति आग्रह न होने के बावजूद भी नई कविता में प्रवाह और गति दिखाई पड़ती है। नाद सौंदर्य इसमें एक अंत:संगीत उत्पन करता है,अर्थ के धरातल पर इसमें एक अंतर्लयता की गूंज उभरती है। कभी-कभी इन कविताओं में मात्राओं का मेल दिखाई पड़ता है लेकिन इससे इन्हें छंदोबद्ध नहीं माना जा सकता। वस्तुत: नई कविता मुक्तक छंद में नई संवेदना और नए विचार की सटीक अभिव्यंजना की एक कोशिश है।
प्रभावी पोस्ट ... ज्ञान का भण्डार है ये पोस्ट नई कविता पे ..
जवाब देंहटाएंaur jaankaari ke liye yaha jaaye ---> https://www.thenewsgyan.com
हटाएंमनोज जी.. इस एक पोस्ट को दो पोस्टों में क्यों नहीं विभक्त किया आपने.. अभी तो बस उपस्थिति दर्ज़ करें, दुबारा पूरा पढ़ और समझकर टिप्पणी करूँगा!!
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण विश्लेषणात्मक आलेख ....
जवाब देंहटाएंaur jaankaari ke liye yaha jaaye ---> https://www.thenewsgyan.com
हटाएंनई कविता पर इतनी महत्वपूर्ण सामग्री ब्लॉग जगत में मौजूद नहीं है। एक संग्रहणीय आलेख।
जवाब देंहटाएंमनोज जी,
जवाब देंहटाएंइसमें कोई संदेह नहीं कि आपने जितनी मिहनत से इस पोस्ट को तैयार किया है वह इसके शब्द-शब्द में प्रकट हो रहा है..नई कविता या प्रयोगवाद या कुछ भी कह लें, वास्तव में यह दौर एक यथार्थवाद का दौर रहा है. इस दौर में जितने भी कवि हुए और जितनी भी कृतियाँ हैं वे स्वप्न और कल्पना के धरातल से दूर जीवन की सचाई की कठोर सतह पर उपजी हैं. यहाँ बादलों, नदियों, झरनों, पेड़-पौधे, पक्षियों की बात नहीं है, न ही महबूबा, आशिकी, प्रेम, विरह, जुल्फें, आँखें और चाल का वर्णन नहीं मिलता, बल्कि दिखाई देता है एक आम आदमी, उसकी भूख, बेरोजगारी, बेकारी, व्यवस्था के प्रति नाराज़गी..!
और इस दौर में जो सबसे अलग बात देखने में आई वह थी कविता का शब्दकोष, कविता के मुहावरे..!! धूमिल की शब्दावली तो शायद तेज़ाब की तरह या पिघले सीसे की तरह कान में बरसती है. और लगता है कि ऐसी कविताओं का उद्देश्य छायावाद के नशे में सो रहे लोगों को नींद से जगाना और वास्तविकता के धरातल पर लाना था.
आपने बहुत ही अच्छे से समेटा है एक पोस्ट में. साधुवाद!!!
Bilkul sahi.... Ye yug Yatharthvad ka hi.... Swapan Or khawabo ka nhi......
हटाएंबहुत सुन्दर...............
जवाब देंहटाएंआपका शुक्रिया अदा करना चाहूंगी इस संग्रहणीय पोस्ट के लिए......
मुझे लगता है कि १३ और १६ बिंदु याने सौंदर्य और बिम्बों का प्रयोग मेरी पसंद हैं....बार बार पढकर आत्मसात करना चाहूंगी इस पूरे आलेख को..
आभार
अनु
नई कविता के बारे में जानकारी देती आपकी यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी। मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंअच्छा सूचनापरक लेख है.हिन्दी साहित्य के एक एक पक्ष को आप यूँ ही लिखते रहेंगे तो धीरे धीरे हमसे लोग भी साहित्य को समझने और जानने लगेंगे .नयी कविता के विषय में..उसकी विशेषताओं के बारे में जान कर अच्छा लगा .साथ ही साथ अज्ञेय ,केदारनाथ अग्रवाल,सहाय साब को पढ़ना भी अच्छा लगा .इतना सब कुछ एक साथ समेट कर...परोसने के लिए बधाई एवं धन्यवाद .
जवाब देंहटाएंमनोज जी ,नई कविता के विषय में पढा तो था लेकिन इतने विस्तार से पहले नही पढा था । बहुत ही उपयोगी व संग्रहणीय आलेख ।
जवाब देंहटाएंअगीत कविता के बारे में भी लिखें...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंऔर अधिक पढ़ने के लिए http://SSChelp.in पर जाएँ।
जवाब देंहटाएंExam ki taiyari Bhut achche se hui
जवाब देंहटाएंThank u
कौन सी परीक्षा के लिए तैयारी में सहायक रही।
हटाएंहिन्दी विशेष, द्वितीय वर्ष के लिए।
हटाएंआपका धन्यवाद
Bahut bahut aabhar jii......
जवाब देंहटाएंश्रीमान जी अपने बारे में भी बताएं आप महान हो
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉग बूँद -बूँद इतिहास अच्छा लगा आपको संग्रह हेतु बधाई
जवाब देंहटाएंबहोत ही उमन्दा प्रयास किया
जवाब देंहटाएंati utam
जवाब देंहटाएंधन्यवाद गुरु जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद .
जवाब देंहटाएंहिन्दीकुंज,हिंदी वेबसाइट/लिटरेरी वेब पत्रिका
Achcha post hai
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत धन्यावाद सर जी मेरी यह जिज्ञासा है की हम समकालीन कविता या नई कविता किसे माने ?
जवाब देंहटाएंसमकालीन कविता अब की कविता है; प्रायः एक पीढ़ी 14 वर्ष की मानी जाती है। इस तरह साहित्य में समकालीन का अर्थ पिछले चौदह-पंद्रह वर्ष के दौरान लिखी गई कविता से है; जबकि नई कविता कविता का एक कालखंड है जो 50 से 60 के दौरान हिंदी साहित्य में आया।
हटाएंअच्छा विश्लेषण।
जवाब देंहटाएंआओ प्रयोगवाद और नई कविता को ओर अधिक जाने...
https://hindigrema.blogspot.com/2020/05/history-of-hindi-literature-experimentalism.html
बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने मैं m.a. फर्स्ट ईयर में हूं मुझे अपना असाइनमेंट लिखने में यह बहुत मददगार साबित हुआ है धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित ज्ञान
हटाएंmujhe nahin Kavita ki avdharna spasht karte hue uski pravritti per Prakash daliye is per assignment banana hai
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और उपयोगी
जवाब देंहटाएंaur jaankaari ke liye yaha jaaye ---> https://www.thenewsgyan.com
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