रीतिकाल का नामकरण
मिश्रबंधुओं ने 'मिश्रबंधु विनोद' में हिंदी साहित्य के इतिहास को तीन भागों में विभाजित किया : आदि,मध्य और आधुनिक।आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मध्य काल को दो भागों में विभक्त किया : 'पूर्वमध्यकाल', जिसे भक्तिकाल की संज्ञा दी गई और 'उत्तर मध्यकाल', जिसे रीतिकाल कहा गया।शुक्ल जी ने आदिकाल का आरम्भ चिंतामणि (संवत 1700)से माना है।कुछ आलोचक इसकी गणना आचार्य केशव से करते हैं, तब रीतिकाल का आरम्भ 50 वर्ष और पीछे चला जाता है।रीतिकाल का नाम आचार्य शुक्ल जी का ही दिया हुआ है।शुक्ल जी ने यह नामकरण इस काल की प्रवृत्तियों और मानव-मनोविज्ञान के आधार पर किया ।
संवत 1700 से संवत 1900 तक रीति-पद्धति पर विशेष जोर रहा। इस काल के प्रत्येक कवि ने रीति के साँचे में ढ़लकर रचना लिखी।डॉ. भगीरथ मिश्र के शब्दों में "उसे रस,अलंकार,नायिकाभेद,ध्वनि आदि के वर्णन के सहारे ही अपनी कवित्व-प्रतिभा दिखाना आवश्यक था।इस युग में उदाहरणों पर विवाद होते थे,इस बात पर कि उसमें कौन कौन-सा अलंकार है? कौन सी शब्द-शक्ति है?काव्यों की टीकाओं और व्याख्याओं में काव्य-सौंदर्य को स्पष्ट करने के लिए भी उसके भीतर अलंकार,रस,नायिकाभेद को भी स्पष्ट किया जाता था।अत: यह युग रीति-पद्धति का युग था।"
आचार्य शुक्ल ने इसे रीति-ग्रंथों की प्रचुरता के कारण ही रीतिकाल का नाम दिया।संस्कृत की तरह हिंदी में 'रीति' का अर्थ विशिष्ट 'पदरचना' नहीं है।रीतिकवि अथवा रीतिग्रंथ में प्रयुक्त रीति शब्द का अर्थ काव्य-शास्त्र से समझना चाहिए।संक्षेप में सभी काव्य-सिद्धांतों के आधार पर काव्यांगों के लक्षण सहित या उनके आधार पर लिखे गए उदाहरणों के आधार पर लिखे गए ग्रंथों को रीतिग्रंथ कहा जाता है।
बाबू श्यामसुंदर दास ने भी हिंदी साहित्य के उत्तर-मध्यकाल में शृंगार रस की प्रचुरता एवं रीतिमुक्त कवियों का महत्त्व स्वीकार करते हुए इसका नामकरण रीतिकाल ही उचित समझा।
मिश्रबंधुओं ने इसे 'अलंकृतकाल' कहा, किंतु उनका अभिप्राय: अलंकार के व्यापक अर्थ से था।उन्होंने मिश्रबंधु विनोद में स्पष्ट किया है कि-"इस प्रणाली के साथ रीतिग्रंथों का भी प्रचार बढ़ा और आचार्यत्व की भी वृद्धि हुई।आचार्य लोग स्वयं कविता करने की रीति सिखलाते थे।मानो वे संसार से यों कहते हैं कि अमुक-अमुक विषयों के वर्णन में अमुक प्रकार के कथन उपयोगी हैं और अमुक अनुपयोगी।"इतना कहने पर भी मिश्रबंधुओं ने इसे अलंकृतकाल ही कहा है,परंतु अलंकार काल कहने से इस काल की प्रमुख प्रवृत्ति का बोध नहीं होता।फिर अलंकार से यह भी स्पष्ट नहीं कि इससे ऐसी कविता को समझा जाए,जिसमें अलंकारों की प्रधानता है अथवा अलंकरण पर अधिक बल दिया गया है।यदि यह सोचा जाए कि इसमें अलंकारों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन है,इसलिए इसका नाम अलंकार युग रखा गया,तो काव्य के अन्य अंगों का क्या ? अत: अलंकृत काल नाम इस युग का पूरा प्रतिनिधित्व नहीं करता।
पं विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने इसे 'शृंगारकाल' नाम दिया।उनका मत है कि हिंदी-साहित्य का काल विभाजन करते हुए इतिहासकारों ने रीतिकाल के भीतर कुछ ऐसे कवियों को फुटकल खाते में डाल दिया है जो रीतिकाल की अधिक व्यापक प्रवृत्ति या शृंगार या प्रेम के उन्मुक्त गायक थे।इसमें आलम,घनानंद,बोधा,ठाकुर के नाम उल्लेखनीय हैं।शुक्ल जी का भी मत है कि यदि केवल रस के आधार पर कोई इस काल का नामकरण करे तो इसे शृंगारकाल कहा जा सकता है।
परंतु प्रश्न तो यह है कि रीतिकाल के कवियों ने क्या शृंगार-रस के ही अंगों का विवेचन किया है?यदि समस्त रीतिकालीन साहित्य को इस दृष्टि से परखा जाए तो शृंगार की प्रधानता तो सर्वत्र है,लेकिन स्वतंत्र रूप से नहीं,सर्वत्र रीति पर आश्रित है।अत: इसे शृंगार काल नहीं कहा जा सकता और भूषण जैसे वीररस के कवि भी रीतिबद्ध कवि थे।
कुछ आलोचक इस काल को 'कलाकाल' कहते हैं।उनके मत में काव्य के कला पक्ष का जितना उत्कर्ष इस काल में हुआ,उतना कभी नहीं हो सका।लेकिन केवलमात्र कला-पक्ष की प्रधानता को देखकर इसको कला-काल नहीं कहा जा सकता,क्योंकि साहित्य में भावपक्ष और कलापक्ष इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।रीतिकाल के कवियों में भावों की उपेक्षा है,ऐसा कहना तो उन कवियों के प्रति अन्याय होगा।
इन सभी नामकरणों की विवेचना के उपरांत यही कहा जा सकता है कि रीतिकालीन सभी कवियों ने रीति-परम्परा का पूर्ण निर्वाह किया।अत: शृंगार रस की प्रधानता असंदिग्ध होने पर भी इसे शृंगारकाल नहीं कहा जा सकता है और न ही अलंकारों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन होने के कारण इसे अलंकृत काल कहना ही उचित होगा।कलाकाल कहना तो बिल्कुल अनुचित होगा,क्योंकि साहित्य में भावपक्ष के बिना कला का कोई महत्त्व नहीं।अत:रीतिकाल कहना ही तर्कसंगत प्रतीत होता है,क्योंकि रस,अलंकार आदि रीति पर आश्रित होकर आए हैं।
आद.मनोज जी,
जवाब देंहटाएंआपने हिंदी साहित्य के इतिहास के रीति काल पर गहन विवेचना बड़े ही तर्कपूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया है !
तथ्यपूर्ण जानकारी परक लेख के लिए साधुवाद!
Right bde. Bhiya
हटाएंसर्वप्रथम तो मेरी बधाई स्वीकार करें कि आपने इस ब्लॉग की ओर अपना ध्यान पुनः देना प्रारम्भ कर दिया है! रीतिकाल के नामकरण जैसे विषय पर बहुत कम पढ़ने को मिला है.. और आपने जो प्रस्तुत किया है उसको पढ़कर मुझ जैसे विज्ञान के विद्यार्थी को भी आनंद आया!
जवाब देंहटाएंइस ब्लॉग को भी जारी रखें!!
H
हटाएंजय हो
हटाएंThank you...!!!
जवाब देंहटाएंIt's very interested
हटाएंHello
हटाएंVery nice
जवाब देंहटाएंVery nice 👌
जवाब देंहटाएंthank_you
जवाब देंहटाएंVery nice nd thnks a lot sir
जवाब देंहटाएंVery very beautiful
जवाब देंहटाएंGood
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंआपके द्वारा बनाये गये इस ब्लॉग से हमें काफ़ी सहायता मिलती है।
Nice information sir g
जवाब देंहटाएंVery very nice
जवाब देंहटाएंThank you sir, it is very nice.
जवाब देंहटाएं💝💝
जवाब देंहटाएंबहुत हि बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएं👍👍👍👍👍
जवाब देंहटाएंPcs important question 🎯
जवाब देंहटाएंThanks good post
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद भाई
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंThanks sir 🙏
जवाब देंहटाएंThanks you ji 🙏 ☺ ❤ 😊 🙌 👍 🙏 vgood😇😇😇
जवाब देंहटाएंVvgood